Book Title: Buddh Vachan
Author(s): Mahasthavir Janatilok
Publisher: Devpriya V A

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Page 83
________________ - ८ - कामच्छन्द-अनागामी होने की ही अवस्था मे इसका सर्वथा नाश होता है। औद्धत्य-अर्हत् होने की ही अवस्था मे मानसिक चचलता (= औद्धत्य) का सर्वथा नाश होता है। विचिकित्सा-श्रोतापन्न होने की अवस्था में ही सशयो का सर्वथा नाश हो जाता है। पृ० ४५ सयोजन-चक्षु ओर रुप के हेतु से आदमी के लिए वधन (=सयोजन) पैदा होता है। प०४८. समाधि-समाधि के दो भेद किये जाते है-(१) उपचार-समाधि (समाधि के समीप की अवस्था), (२) अर्पणा-समाधि (=सम्पूर्ण समाधि)। यह आवश्यक नहीं कि निर्वाण-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वाले मनुष्य को चारो ध्यान की भी प्राप्ति हो ही, और न ही केवल उपचार-समाधि या अपर्णा समाधि के वल पर कोई श्रोतापन्न आदि हो सकता है। श्रोतापन्न आदि तो होता है केवल विपश्यना द्वारा-जिसका मतलब है मसार को अनित्यस्वरूप, दुख-स्वरुप तथा अनात्म-स्वरूप देख सकने की शक्ति । लेकिन हॉ यह विपश्यना केवल उपचार-समाधि की अवस्था में प्राप्त होती है। इसलिए यदि किसी ने ध्यान-प्राप्त कर लिए है, तो भी उसे विपश्यना के लिए उपचार-समाधि की अवस्था मे आना . होगा। जो बिना किसी व्यान की प्राप्ति के क्लेशो को नष्ट करता है, उसे सुख विपश्यक कहते है, जो ध्यानो के द्वारा प्राप्त अन्दरूनी शान्ति (=शमथ) की सहायता से क्लेशो को नष्ट करता है, उसे समथ यानक कहते है। पृ० ५०. आकाशानन्त्यायतन-आकाश (=Space) के अनत होने का भाव।

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