Book Title: Buddh Vachan
Author(s): Mahasthavir Janatilok
Publisher: Devpriya V A

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Page 68
________________ - ४७ - दुख-समुदय है-इसे यथार्थ स्प से जानता है। यह दुख-निरोध है'इगे यथार्थ रूप से जानता है। 'यह दुस-निरोव की ओर ले जाने वाला मार्ग है'-इते यथार्थ-स्प से जानता है। इस प्रकार भीतरी-धर्मो मे धर्मानुपश्यी हो विहरता है । वाहरी-धर्मो मे धर्मानुपश्यी हो विहरता है। भीतरवाहर धर्मो मे धर्मानुपश्यी हो विहरता है। धर्मो मे उत्पत्ति (-धर्म) को देखता है। धर्मों मे वय (-धर्म) को देखता है। धर्मो मे समुदय - वय धर्म को देसता है। 'धर्म है' करके इसकी स्मृति ज्ञान जोर प्रति-स्मृति की प्राप्ति के लिए उपस्थित रहती है। वह अनाश्रित हो विहरता है। लोक मे किमी भी वस्तु को (मै, मेरा करके) ग्रहण नहीं करता। भिक्षुओ, जो कोई भिक्षु इन चार स्मृति-उपस्थानो की सात वर्ष तक भावना करे, उसे दो फलो मे से एक फल की प्राप्ति अवश्य होगी-इसी जन्म मे अर्हत्व (=अज्ञा), उपादान-अवशिष्ट रहने पर अनागामी-भाव। भिक्षुओं, सात वर्प की वात रहने दो छ वर्ष पाँच वर्ष चार वर्ष तीन वर्प दो वर्ष वर्ष मास सप्ताह भर भी भावना करे, तो, उसे दो फलो मे से एक फल अवश्य प्राप्त होगा-इसी जन्म मे अर्हत्व वा उपादान अवशिष्ट रहने पर अनागामी-भाव।

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