Book Title: Buddh Vachan
Author(s): Mahasthavir Janatilok
Publisher: Devpriya V A

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Page 73
________________ म. १४० म २९ म. ५१ ५२ भिक्षुओ, यही परम् आर्य-प्रज्ञा है - यह जो सभी दुखो के क्षय का ज्ञान । उसकी यह विमुक्ति सत्य मे स्थित होती है, अचल होती है । भिक्षुओ, यही परम् आर्य सत्य है यह जो अक्षय निर्वाण | भिक्षुओ, यही आर्य त्याग है, यह जो सभी उपाधियो का त्याग । भिक्षुओ, यही परम् आर्य-उपशमन है, यह जो राग-द्वेप-मोह का wate - उपशमन । "मैं हूँ" -- यह एक मानता है, "मैं यह हूँ" यह एक मानता है, " होऊँगा" -- यह एक मानता है, "मैं नही होऊँगा" - यह एक मानता है, "मै रूपी होऊँगा" -- यह एक मानता है, "मैं अरूपी होऊँगा" - यह एक मानता है, "मैं सजी होऊँगा" यह एक मानता है, "मैं असज्ञी होऊँगा"यह एक मानता है, "मैं न सज्ञी - नासज्ञी" होऊँगा - यह एक मानता हैभिक्षुओ, मानता रोग है, मानता फोडा है, मानता शल्य है। सभी मान्यताओ के उपशमन होने पर कहा जाता है - " मुनि शान्त है" । भिक्षुओ, जो शान्त-मुनि है, न उसका जन्म है, न जीवन है, न मरण है, न चञ्चलता है, न इच्छा है, क्योकि भिक्षुओ, उसे वह (हेतु) ही नही है जिससे पैदा होना हो । जब पैदा ही होना नही तो जीयेगा क्या ? जव जीएगा नही, तो चञ्चल क्या होगा ? जब चचल नही होगा तो, इच्छा क्या करेगा ? भिक्षुओ, इस श्रेष्ट - जीवन का उद्देश्य न तो लाभ - सत्कार की प्राप्ति, न प्रशसा की प्राप्ति, न सदाचार के नियमो का पालन करना, न समाधि - लाभ और न ज्ञानी बनना ही । भिक्षुओ, जो चित्त की अचल विमुक्ति है वही इस श्रेष्ठ - जीवन का असली उद्देश्य है, वही सार है, उसी पर खातमा है । भिक्षुओ, पूर्व मे जितने भी अर्हत सम्यक् सम्बुद्ध हुए उन्होने भिक्षुसघ को इसी आदर्श की ओर अच्छी तरह लगाया, जिसकी ओर इस समय मै ने अच्छी तरह लगाया है।

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