Book Title: Buddh Vachan
Author(s): Mahasthavir Janatilok
Publisher: Devpriya V A

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Page 29
________________ सस्कार अनित्य है तथा विज्ञान अनित्य है। जो अनित्य है, सो दुय है। जो दुख है, सो अनात्म है। जो अनात्म है, वह न मेरा है, न वह मै हूँ, न वह मेरा आत्मा है। ५ उस लिए भिक्षुओ! इसे अच्छी प्रकार ममझ कर यथार्थ रूप मेयू जानना चाहिए कि यह जितना भी स्प है, जितनी भी वेदना है, जितनी भी मना है, जितने भी सस्कार है, जितना भी विज्ञान है, चाहे भूतकाल पा हो, चाहे वर्तमान का, चाहे भविष्यत का, चाहे अपने अन्दर का हो, अथवा वाहर का, चाहे स्थूल हो अथवा मूक्ष्म, चाहे बुरा हो अथवा भला, चाहे दूर हो अथग समीप-वह "न मेरा है, न वह मै हूँ, न वह मेग आत्मा है।" ६ भिक्षुओ। जैसे इस गङ्गा नदी में बहुत मी झाग (=पन) चली आ रही हो। उस शाग को कोई आस वाला आदमी देसे, उन पर मोचे और विचार करे और मोचने तथा विचार करने में उसे वह झाग बिल्कुल रिक्त, तुच्छ तया सारहीन मालूम दे-भिनओ। फैन में बना गार हो सकता है ? उसी प्रकार भिक्षुजो, जितना भी रप है-चाहे भून काल का हो, चाहे वर्तमान का, नाहे भविष्यत का, चाहे अपने अन्दर का हो, चाहे वाहर का, चाहे स्थल हो अथवा नूक्ष्म, नाहे दग हो अथवा भला, चाहे दूर हो अथवा समीप-उने भिक्षु देसता है, सोनता है, उस पर अच्छी तरह विचार करता है। उसे देखने, नोचने, उस पर बच्छी तरह विचार करने से उसे वह रूप विल्कुल रिक्त, तुच्छ तथा तान्हीन दिखाई देगा। भिक्षुओ, रूप मे क्या सार हो सकता है ? ११ इस प्रकार यह आग लग रही है, और तुम्हे आनन्द तथा हँसना सूझता है। ___ क्या तुम कभी किसी ऐसे स्त्री या पुरुप को नहीं देसते, जो अस्मी, नव्वे, या सो वर्ष का हो, जो बूढा हो गया हो, जिसकी कमर शहतीर की तरह झुक गई हो, जो लाठी लिए चलता हो, जो कापता हो, जो दुसी हो, जिसकी जवानी चली गई हो, जिसके दॉत गिर गए हो, जिसके बाल पक गए हो,

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