Book Title: Buddh Vachan
Author(s): Mahasthavir Janatilok
Publisher: Devpriya V A

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ २३ भिक्षुओ, जैसे किसी आदमी को जहर मे बुझा हुआ तीर लगा हो । म ६३ उस के मित्र, रिश्तेदार उसे तीर निकालने वाले वैद्य के पास ले जावे । लेकिन वह कहे "मैं तव तक यह तीर नही निकलवाऊँगा, जब तक यह -- न जान लूँ कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है वह क्षत्रिय है, ब्राह्मण है, वैश्य है, वा शूद्र है, " अथवा वह कहे - "मैं तव तक यह तीर नही निकलवाऊँगा, जब तक यह न जान लूँ कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है, उसका अमुक नाम है, अमुक गोत्र है, " अथवा वह कहे - "मै - तब तक यह तीर नही निकलवाऊँगा, जब तक यह न जान लूं कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है वह लेम्बा है, छोटा है वा मँझले कद का है, तो हे भिक्षुओ, उस आदमी को इन वातो का पता लगेगा ही नही, और वह यूँ ही मर जायगा । " भिक्षुओ, 'ससार शास्वत हैं' ऐसा मत रहने पर भी 'ससार अगास्वत है' ऐसा मत रहने पर भी, 'ससार सान्त है' ऐसा मत रहने पर भी, 'सतार अनन्त है' ऐसा मत रहने पर भी, 'जीव वही है जो शरीर है, ऐसा मत रहने पर भी, 'जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है' ऐसा मत रहने पर भी, 'मृत्यु के वाद तयागत रहते है' ऐसा मत रहने पर भी, 'मृत्यु के बाद तथागत नही रहते' ऐसा मत रहने पर भी -- जन्म, वुढापा, मृत्यु, शोक, रोना-पीटना, पीडित- होना, चिन्तित होना, परेशान होना तो ( हर हालत मे ) है ही, और मैं इसी जन्म मे - जीते जी — इन्ही सव के नाश का उपदेश देता हूँ । भिक्षुओ, जिस अज्ञ पृथग्जन ने आर्यों की सगति नही की, आर्य-धर्म म. ६४ का ज्ञान प्राप्त नही किया, आर्य धर्म का अभ्यास नही किया, सत्पुरुषो की गति नही की, सद्धर्म का ज्ञान प्राप्त नही किया, सद्धर्मका अभ्यास नही किया, उसका मन, सत्काय-दृष्टि से युक्त होता है, वह यह नही जानता कि 'सत्काय दृष्टि' पैदा होने पर, उससे किस प्रकार मुक्त हुआ जाता है । उसकी ' सत्काय - दृष्टि' दृढ होकर उसको पतन की ओर ले जाने वाला बन्धन वन जाती है । उसका मन विचिकित्सा से युक्त होता है उसका

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93