________________
लेकिन जब बुद्ध से पूछा जाता है कि 'आप कहते है 'मनुष्य दु ख भोगता है, मनुष्य मुक्त होता है, तो यह दुख भोगने वाला, दुःख से मुक्त होने वाला कौन है ?” बुद्ध कहते है "तुम्हारा यह प्रश्न ही गलत है (न कल्लोऽय पञ्हो) प्रश्न यूं होना चाहिये कि क्या होने से दुख होता है। और उसका उत्तर यह है कि तृष्णा होने से दुख होता है।" यदि आप फिर यह जानना चाहे कि तष्णा किसे होती है तो फिर बुद्ध का वही उत्तर है कि "तुम्हारा यह प्रश्न ही गलत है कि तृष्णा किसे होती है, प्रश्न यूं होना चाहिये कि क्या होने से तृष्णा होती है" ? और इसका उत्तर यह है कि वेदना ( इन्द्रियो
और विपयो के स्पर्श से अनुभूति) होने से तृष्णा होती है। इस प्रकार यह प्रत्ययो से उत्पत्ति का नियम (प्रतीत्य-समुत्पाद) सदा चलता रहता है। एक के होने से दूसरे की उत्पत्ति होती है, एक के निरोध से दूसरे का निरोध।
"अविद्या के होने से सस्कार, सस्कार के होने से विज्ञान, विज्ञान के होने से नाम-रूप, नाम-रूप के होने से छ आयतन, छ आयतनो के होने से स्पर्श, स्पर्श के होने से वेदना, वेदना के होने से तृष्णा, तृष्णा के होने से उपादान, उपादान के होने से भव, भव के होने से जन्म, जन्म के होने से बुढापा, मरना, शोक, रोना-पीटना, दुख, मानसिक चिन्ता तथा परेशानी होती है। इस प्रकार इस सारे के सारे दुख-स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। भिक्षुओ, इसे प्रतीत्य-समुत्पाद कहते है।
अविद्या के ही सम्पूर्ण विराग से, निरोध से सस्कारो का निरोध होता है। सस्कारो के निरोध से विज्ञान-निरोध, विज्ञान के निरोध से नाम-रूप निरोध, नाम-रूप के निरोध से छ आयतनो का निरोध, छ आयतनो के निरोध से स्पर्श का निरोध, स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध, वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध, तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध, उपादान के निरोध से भव-निरोध, भव के निरोध से जन्म का निरोध, जन्म के निरोध से बुढापे, शोक, रोने-पीटने, दुक्ख, मानसिक-चिन्ता तथा परे