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-MAHARMA
KOPARDAMODARAppamooshanpOPOWRAPOOR शतअष्टोत्तरी,
१७, और रस राच्यो है। इन्द्रिनके सुखमें मगन रहै आगे जाम इन्द्रिएनके दुख देख जाने दुख सांच्यो है । कहूं क्रौध कहूं मान कहूं है माया कहूं लोभ; अहंभाव मानिमानि औरठौर माच्यो है ॥ देव तिरजंच नरनारकी गतिन फिरे, कौन कौन स्वांग धरै यह ब्रह्म नाच्यो है ।। ३९ ॥
करखाछंद गुर्जरभाषायाः । उहिल्याजीवड़ाहूंतनै शू कहूं, वळीवळी आज तुं विषयविष सेवै।।
विपयना फल अछै विषय थकी पांडुवा ज्ञाननी दृष्टि तूंकांन वैवै॥ ॐ हजी शुं सीख लागी नथी कांतनै नरकना दुःख कहिवेको न रेवै। आन्यो एकलो जायपण एक तू, एटलामाटे का एटलू खेवै ॥ कवित्त.
.. न कोड तो करै किलोल भामिनीसों रीझिरीझि, वाहीसों सनेह ।
करै कामराग अंगमें । कोउतो लहै अनंद लक्ष कोटि जोरि है लक्ष लक्ष मानकरै लच्छिकी तरंगमें । कोउ महाशूरवीर कोटिक
गुमान करै, मो समान दूसरो न देखो कोऊ जंगमें । कहैं कहा 'भैया, कछु कहिवेकी वात नाहि, सब जग देखियतु रागरस
रंगमें ॥४१॥ है जोलों तुम और रूप है रहे हो चिदानंद, तोलो कहूं सुख नाहिं रावरे विचारिये। इन्द्रिनिके मुखकोजो मान रहे सांचो सुख, सो तो सब दुःख ज्ञान दृष्टिसों निहारिये॥ एतो विनाशीक रूप छिनमें औरै । स्वरूप, तुम अविनाशीभूप कैसें एक धारिये। ऐसो नरजन्म पाय
विवेक कीजै, आप रूप गहि लीजे कर्मरोग टारिये ॥४२॥ - अरे मूढ चेतन! अचेतन तू काहे होत, जेई छिन जांहिं फिर
तेई तोहि आयवी? । ऐसो नरजन्म पाय श्रावकके कुल आय, maharaDomperPRORADARPANMOPandey
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