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( ३३ ) रखना तथा विकृत हो जाने पर उसको पुन. स्वस्थ कर देना यही चिकित्सक का प्रधान न्यापार है। इस कार्य के सम्पादन मे चिकित्सक को संशोधन, संशमन, आहार, आचारादि उपक्रमों को करना पडता है। तदनन्तर वह मानव को शारीरिक सुख और आयु को देने वाला होता है। ___यद्यपि दोप-दूप्य-संयोग एव दोप के विविध (संसर्ग) प्रकार के मिश्रणों से चिकित्सा कर्म भी अनेकविध होते है, तथापि मूल कर्म छ. ही है-लंघन, बृंहण, रूक्षण, स्नेहन, स्वेदन और स्तभन । इन छः उपक्रमों मे ही सभी को का अन्तर्भाव हो जाता है। जिस प्रकार दोपों की अलख्य कल्पनादि के होते हुए भी उनकी तीन की संख्या नष्ट नहीं होती उसी प्रकार कमों का पटव भी नहीं नष्ट होता है । यदि अधिक संक्षेप किया जाय तो वस्तुतः कर्म दो ही प्रकार के होते है-लंघन तथा बृंहण। इन दोनों से ही सर्व कर्म समाविष्ट हो जाते है । सक्षेप में चिकित्सा करते हुए भिपक को इन्ही कमो का आश्रय लेकर चलना होता है । इसी से वह रोगों के ऊपर विजय और अपने कार्य से सिद्धि प्राप्त करता है और भिपक की सज्ञा से सुशोभित होता है।
इति पट सर्वरोगाणां प्रोक्ताः सम्यगुपक्रमाः।
साध्यानां साधने सिद्धा मात्राकालानुरोधिनः ।। (च० सू०२२) अभिनव आयुर्वेद साहित्य एव प्रस्तुत रचना-कारण से कार्य का अनुमान लगाया जाता है। उभयज्ञ भिपको की लिखी हुई रचना तथा उनसे निर्मित आयुर्वेद साहित्य भी अपना विशिष्ट स्थान रखता है। अभिनव आयुर्वेदज्ञ एकाङ्गी नही होते । वे प्राचीन ज्ञान को आधुनिक विज्ञान के आलोक मे देखने का प्रयत्न करते है। आधुनिक विषयों को जो प्रायः यरोपीय या अग्रेजी भाषा मे है, प्राचीनोक्त शब्दों मे उसकी व्याख्या करने तथा नवीन एवं प्राचीन में सामञ्जस्य स्थापित करने का स्तुत्य प्रयत्न करते है। इस प्रकार पश्चिमी देशों से प्राप्तज्ञान का स्वदेश मे प्रचलित भापा एव लिपियों में आत्मसात् करने का सतत प्रयत्न अभिनव आयुर्वेद की रचनाओं में पाया जाता है। बहुत से ऐसे साहित्य का निर्माण हिन्दी भाषा मे हो चुका है और भविष्य मे भी होता रहेगा-ऐसा विश्वास है।
प्रस्तुत रचना विशुद्ध रूप से आयुर्वेदीय चिकित्सा विपय से सम्बद्ध है। इसमे पूरे विषय को पाँच खण्डों में विभाजित करके लिखने का प्रयत्न किया गया है। प्रथम खण्ड सामान्य रोग निदान के सूत्रों से सम्बद्ध है, दूसरा खण्ड चिकित्सा के वीजभूत सिद्धान्तों पर व्यवस्थित है, तीसरा खण्ड विविध पंचकमी के सामान्य ज्ञान तक सीमित है, चतुर्थ खण्ड रोगानुसार उनके सामान्य लक्षण, साध्यासाध्य-विवेक एवं चिकित्सा पर व्यवस्थित है और रचना
३ भि० भू०