Book Title: Bhav Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 14
________________ मज्झिमकसायअडउवसमे हु संजलणणोकसायाणं। खइउवसमदो होदि हुतं चेव सरागचारित्तं ।। 12 ॥ मध्यमक षायाष्टोपशमे हि संज्वलननोकषायाणां । क्षयोपशमतो भवति हि तचैव सरागचारित्र ।। अन्वयार्थ - (मज्झिमकसाय अउपसम) मध्यपी माठ अर्थात् अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों काउपशम होने पर (च) तथा (संजलणणोकसायाण)संज्वलन कषाय और नोनव कषायों के (खइउवसमदो) क्षयोपशम से जो चारित्र ( होदि) होता है, (तं एव) वही (सरागचारित्र) सरागचारित्र है। जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो बाहिरेहिं पाणेहिं । अन्भतरेहिं णियमा सो जीवोतस्स परिणामो।।13।। जीवति जीविष्यति यो हि जीवितः बाघैः प्राणैः । अभ्यन्तरैः नियमात् स जीवस्तस्य परिणामः ।। अन्वयार्थ - (जो) जो (बाहिरे हिं) इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास रूप बाम तथा(अब्मतरेहि) ज्ञान दर्शन रूप अभ्यन्तर (पाणेहिं) प्राणों से (जीवदि) जीता है, (जीविस्सदि) जीवेगा और (जीविदो) जीता था (सोणियमा) वह नियम से (जीवो) जीव है (तस्स) उस जीव का (परिणामो) परिणाम जीवत्व भाव है। भावार्य - जो पाँच इन्द्रिय- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र तीन बल- मनबल, वचन बल और काय बल, आयु और श्वासोच्छवास इन दस बाध्य प्राणों से तथा ज्ञान, दर्शन रूप अभ्यन्तर प्राणों से जीता है, जीता था तथा जीवेगा वह जीव है। अभ्यन्तर प्राणसे तात्पर्य जीव का ज्ञान दर्शन रूप उपयोगात्मक परिणामहै। यहाँ पर "तस्स परिणामों" शब्द से जीव के पारिणामिक भावों में से जीव के जीवत्व भाव का ग्रहण किया गया है क्योंकि आगामी गाथा में मव्यत्व और अभव्यत्व के स्वरूप का कथन करते हुए दो पारिणामिक भाव कहे गये है अतः उपर्युक्त गाथा में तीसरे जीवत्व रूप पारिणामिक भाव को ग्रहण करना चाहिए।

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