Book Title: Bhartuhari Shataka Trayam
Author(s): Bhartuhari, Dharmanand Kosambi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 24
________________ किञ्चित् प्रास्ताविक इस रचना के प्रति जैन विद्वानोंका इतना आकर्षण होनेका कारण, इसमें प्रतिपादित सुन्दर उपदेशात्मक विचार और सर्वसामान्य हितोपदेशक नीतिसिद्धान्त हैं । जिस प्रकारके नैतिक और वैराग्यात्मक विचारोंका इसमें प्रतिपादन किया गया है वे सब प्रायः जैन विचारोंके साथ बहुत कुछ समानता रखते हैं। यदि इसमें शिवकी महिमा और शैव भावके आदर्शभूत कुछ उङ्गार न हों, तो यह संपूर्ण रचना किसी जैन विद्वान्की ही मानी जाय ऐसी लगती है । इसके अनुकरणरूप- सोमशतक, धनदत्रिशती, कर्पूरप्रकर, वैराग्यशतक आदि कितनी ही रचनाएं जैन विद्वानोंने की हैं। जैन यति-साधु - वर्ग प्रायः इसके पद्योंको कण्ठस्थ करते रहते हैं और अपने उपदेशात्मक व्याख्यानोंमें उनका वारंवार उपयोग करते रहते हैं। मैंने स्वयं अपने प्रारंभिक जीवनकालमें इसके अनेक पद्य कण्ठस्थ कर लिये थे और ये मुझे बड़े प्रिय लगते रहे हैं। आज भी मुझे इसके अनेक पद्य उतने ही हृदयंगम लगते हैं और 'गङ्गातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य' अथवा 'मही राय्या पृथ्वी विपुलमुपधानं भुजलता' एवं 'कौपीनं शतखण्डजर्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी' इत्यादि पद्योंका स्मरण वारंवार होता रहता है और इनके पाठसे मनको एक प्रकारका आह्लादभाव प्राप्त होता रहता है । . यदि मुझसे कोई पूछे कि संस्कृतका सबसे अधिक प्रिय कवि मुझे कौन लगता है, तो मेरे मुखसे तुरन्त उत्तर मिलेगा कि 'महाकवि भर्तृहरि !' । भर्तृहरिके इन लोकप्रिय और पण्डितप्रिय सुभाषितों का उपयोग अनेक जैन ग्रन्थकारोंने अपने ग्रन्थोंमें किया है । इनमें जो सबसे प्राचीन उपयोग हमारे देखनेमें आया है वह वि० सं० ९१५ ( ई. स. ८५९) में बने हुए धर्मोपदेशमालाविवरण ( कर्त्ता जयसिंहसूरि ) में है । इस विवरणमें प्रस्तुत रचनायें उपलब्ध 'कृमिकुलचितं' (पृ. १० ) और 'भग्नाशस्य करण्ड' ( पृ. ११ ) ये पद्य प्रसंगवश उद्धृत किये गये हैं। इससे यह तो निश्चित ज्ञात होता है कि जैन विद्वानोंको कमसे कम विक्रमकी १० वीं शताब्दीके प्रारंभसे ही भर्तृहरिकी इस रचनाका परिचय रहा है । संस्कृतके हजारों ही ग्रन्थकारों और कवियोंकी तरह, भर्तृहरिके समय और स्थान आदि विषयमें भी कोई असंदिग्ध एवं निश्चायक प्रमाण अभीतक उपलब्ध नहीं है । विक्रमकी - १४वीं शताब्दीके उत्तर भागमें (वि. सं. १३६१ ) जैन विद्वान् मेरुतुङ्गसूरिने प्रबन्धचिन्ता भर्तृहरिके कुछ पद्योंका शब्दान्तरके रूपमें भी जैन ग्रन्थोंमें उद्धरण दृष्टिगोचर होते हैं । प्रस्तुत आवृत्तिके नीतिशतकगत 'दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने' (पृ. ३५ ) इस पद्यका केवल शब्दान्तरके रूपमें अविकल भाव बतानेवाला निम्न पद्य, जिनदत्ताख्यान नामक प्राकृतरचनामें उद्धृत है । Jain Education International • माधुर्यं प्रमदाजने सुललितं दाक्षिण्यमार्ये जने, शौर्य शत्रुषु मार्दवं गुरुजने धर्मिष्ठता साधुषु । मर्मज्ञेष्वनुवर्तनं बहुविधं मानं जने गर्विते, शाठ्यं पापजने नरस्य कथितं पर्याप्तमष्टौ गुणाः ॥ ( सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २७, पृ. ५८ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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