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प्रस्तावना इस वर्ष के जनवरी मास में जब पंजाब यूनिवर्सिटी ने मुझे " मेयो पटियाला रिसर्च स्कालरशिप” प्रदान किया, तो मुझे सांकृतविभाग के अध्यक्ष ( तथा अब
ओरियंटल कालिज के प्रिन्सिपल) डा. लक्ष्मण स्वरूप के निरीक्षण में काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने मुझे 'पृथ्वीराज रासो' की उपलब्ध सामग्री के अवलोकन करने पर नियुक्त किया ताकि इससे रासो के प्राचीन पाठ का निर्माण किया जा सके, प्राचीन ग्रन्थों का संपादन भी अब एक सायंस बन गया है। इस के अपने सिद्धान्त हैं जिन को भली प्रकार समझे बिना सम्पादन में सफलता नहीं मिल सकती। डा० स्वरूप महोदय भारतीय ग्रन्थों के सम्पादन में अपार अनुभव रखते हैं। उन की कृपा से जब मुझे भी इस में कुछ गति होने लगी, तब डाक्टर महोदय ने मुझे आज्ञा की कि रासो की सामग्री के अवलोकन से जो कुछ अनुभव प्राप्त हुआ है उसे हिंदी में लेखबद्ध कर दो ताकि इस से संस्कृत और हिंदी के जानने वालों को भी सम्पादन कार्य में सहायता मिले। इस आज्ञा के फलस्वरूप यह लेख तय्यार किया गया है ।
इस के लिखने में निम्नलिखित ग्रन्थों से सहायता ली गई है, जिस के लिए मैं उन के लेखकों तथा प्रकाशकों का ऋणी हूं।
___I.S. M. Katre : Introduction to Indian Textual Criticism. Bombay. 1941. यह संस्कृत ग्रन्थों के सम्पादन से सम्बन्ध रखने वाली अंगरेज़ी की पहली पुस्तक है।
2. F. W. Hall : Companion to Classical Texts. Oxford, 1913. इस में प्रीक और लैटिन ग्रन्थों के सम्पादन करने की विधि वर्णन की गई है, साथ ही सम्पादन के सामान्य नियम भी बड़ी विशद रीति से समझाए गए हैं।
3. V. S. Sukthankar : Prolegomena to the critical edition of the Adiparvan of the Mahabharata, Poona, 1933. इसे भारतीय सम्पादन-शास्त्र की नींव समझना चाहिए । पाश्चात्य विद्वानों के सम्पादन-शास्त्रीय अनुभव का महाभारत दे, सम्पादन में प्रयोग किया गया है।
4. F. Edgerton : Pancatantra Reconstructed. 1924. 5. L. Sarup : The Nighantu and the Nirukta. Oxford, 1920 ६. गौरीशंकर हीराचंद ओझा-भारतीय प्राचीन लिपिमाला ।
। अन्त में मैं डा० लक्ष्मण स्वरूप का हार्दिक धन्यवाद करता हूं जिन्होंने मुझे इस शास्त्र में प्रवेश कराया और इसे हिंदी में लेख-बद्ध करने पर उत्साहित किया। यह लेख प्रेस में भेजा ही था कि मैं श्री आत्मानन्द जैन कालिज,अम्बाला शहर का प्रिन्सिपल नियुक्त किया गया । अतः मुझे लाहौर छोड़ कर अम्बाले जाना पड़ा। मेरी अनुपस्थिति में प्रूफ-संशोधन का कष्ट मेरे पूज्य पिता डा० बनारसीदास को उठाना पड़ा। इस का मुझे बड़ा खेद है।
मूलराज जैन
Aho ! Shrutgyanam