Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 49
________________ ( ३६ ) पर इस वाक्य में प्लुति का प्रयोग 'दूराद्धृते घ' (पाणिनि ८, २, ८४ ) के अनुसार दृर से बुलाने के लिए हुआ है। इस प्रति के आदर्श में 'भो बिल ३' पाठ होगा जिस के स्थान पर 'भो बिल भो बिल भो बिल' लिख देना कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि '२', प्रायः दुहराने के लिए आता ही है, जैसे 'भो २ ' = 'भो भो'। जव कोई प्रति एक लिपि के आदर्श पर से किसी अन्य लिपि में लिखी गई हो, और आदर्श की लिपि में प्रतिलिपि की लिपि के अक्षरों से मिलते जुलते परंतु भिन्न उच्चारण वाले अक्षर हों, तो उस प्रति में ऐसे समान अक्षरों का उलट फेर काफ्री हो सकता हैं। उदाहरण-महाभारत आदिपर्व के शारदा मादर्श S' से देवनागरी में लिटिकृत K, प्रति में यह दोष प्रायः दृष्टिगोचर होता है क्योंकि शारदा और देवनागरी लिपियों के कुछ अक्षरों में बहुत समानता है। जैसे-स,म (शा० संकुले 7 ना० मंकुले) ;त, उ और थ प (शा० तथा 7 ना० उषा) ; ऋ, द (शा० ऋध्या 7 ना० ध्या); म, श (शा० प्रकामं7 सा० प्रकाशं); च, श (शा. पांचालीं 7 ना० पांशाली); त, तु (शा० अार्तस्वरं 7 ना० मातु०); त, तु (शा० सत्तमः 7 ना० सतुमः) आदि। इसी प्रकार जैन देवनागरी के आदर्श से प्रचलित देवनागरी में लिखते समय भ के स्थान पर त, क्ख के स्थान पर रक आदि हो जाते हैं। इस सरणी का अनुसरण करते हुए किसी लिपि के समान आकृति वाले अलरों को, और भिन्न भिन्न लिपियों के परस्पर समान अक्षरों की विस्तृत सूचियां तय्यार की जा सकती हैं। (२) शब्द-भ्रम ___ यदि किसी भाषा में कुछ शब्द ऐसे हों जो परस्पर मिलते जुलते हों परंतु जिन के अर्थ में भेद हो, तो लिपिकार ऐसे शब्दों में हेर फेर कर सकता हैं। उदाहरण-तुलसी रामायण (१ । २६१ । ७ ) 'मरासुर' ( =बाणासुर ), २, ४, ६, ७, ८ प्रतियों में 'सुरासुर'। (३) लोप लोप के मुख्यतया दो कारण होते हैं (क) लिपिकार की असावधानता और लेख प्रमाद -इस कारण से तो किसी भी अक्षर, मात्रा, शब्दांश, शब्द, वाक्य, श्लोक, पृष्ठ आदि का लोप हो सकता है। १. भूमिका पृ० ११ । Aho ! Shrutgyanam

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