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( ५३ ) यदि कोई सुधार योगपद्येन विषयानुसंगत और लेखानुसंगत न हो, तो यह विषयानुसंगत है या लेखानुसंगत इस बात के अनुसार इस की प्राह्यता में अन्तर पड़ माता है । जो सुधार लेखानुसंगत न हो परन्तु पूर्ण रूप से विषयानुमंगत हो, वह तो प्राय हो सकता है । जो लेखानुसंगत तो हो परन्तु विषयानुसंगत न हो, वह कदापि प्रहण नहीं किया जा सकता । इसी लिए तो आवश्यक है कि सम्पादक को लिपिज्ञान के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ जानना जरूरी है। उसे रचियता की भाषा, शैली, भाव आदि का विशेष अध्ययन करना चाहिए ।
संपादन-पद्धतियां
सम्पादन में सुधार का क्या स्थान है, इस के अनुसार सम्पादन-कार्य की दो पद्धतियां हैं-प्राचीन और नवीन ।
प्राचीन पद्धति में सुधार को कोई स्थान नहीं। इसके अनुयायी प्रस्तुत पाठ में सुधार किए बिना ही येन केन प्रकारेण अर्थ लगाते हैं। वह प्रस्तुत शब्दों से पूर्वापर प्रसंग द्वारा ज्ञात अर्थ को निकालने का प्रयत्न करते हैं, चाहे वह अर्थ उन में हो चाहे न हो । यदि वह अपने इस प्रयत्न में सफल नहीं होते, तो वह प्रस्तुत पाठ को दूषित या अशुद्ध प्रयोग मान कर रचयिता के माथे मढ़ देते हैं। वह उस को रचियता का असाधारण प्रयोग या उस की व्यक्तिगत विशेषता बतलाते हैं। इस में सन्देह नहीं कि धुरंधर विद्वान् और सुप्रसिद्ध ग्रंथकार की कृतियों में भी असाधारण प्रयोग और अशुद्धियां मिलती हैं। इस का यह अर्थ नहीं कि हम इन अशुद्धियों को संपादित पाठ में ज्यों का त्यों छोड़ दें-केवल यह सोच कर कि शायद यह पाठ मौलिक हो । इस से रचना को अधिक हानि पहुंचने की संभावना है।
___ इस पद्धति के अनुसार वही पाठ मौलिक हो सकता है जो प्रतियों आदि के आधार पर हम तक पहुंचा हो । सम्पादक यदि कहीं पर सुधार करे भी, तो इस को टिप्पणों में या परिशिष्ट में रखे । इस से पाठ तो अवश्य वही रहेगा जिस के प्रमाण हमारे पास विद्यमान हैं परन्तु पढ़ने में अड़चन पड़ेगी। पदे पदे पाठक को अर्थ समझने के निमित्त ठहरना पड़ेगा और अपनी बुद्धि पर जोर देना होगा।
नवीन पद्धति के अनुसार अशुद्ध पाठ का सुधार करना अच्छा है परन्तु क्लिष्ट कल्पना से केवल अर्थ लगाना अच्छा नहीं । सम्पादक मूल में उस पाठ को देगा जो विषयानुसंगति और लेखानुसंगति के परस्पर तौल से मौलिक सिद्ध हो । मूलपाठ से संबद्ध सब सामग्री को वह तुलनात्मक टिप्पणों में देगा। हर बार उपस्थित पाठ की ही जांच करेगा, वह यह नहीं देखेगा कि अन्यत्र उसने क्या निर्णय किया था।
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