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( ५१ ) दिखाई देते हैं । वास्तव में वह उपयुक्त नहीं होते । हाशिए आदि के टिप्पण मूल पाठ में आकर पाठ को लम्बा कर देते हैं । अत: लम्बे पाठ की अपेक्षा छोटे पाठ प्रायः अधिक शुद्ध, प्राचीन और मौलिक होते हैं।
संदेह-यदि संपादक यह निर्णय न कर पाए कि कौन सा पाठ मौलिक है, तो इस अवस्था को संदेह की अवस्था कहते हैं।
संदेह तब पैदा होता है जब विषयानुसंगति के कारण एक पाठ प्रामाणिक हो, परन्तु लेखानुसंगति किसी अन्य पाठ की पुष्टि करती हो, या संपादक को स्वयं इस बात का विश्वास न हो कि उस ने सब सामग्री का प्रयोग किया है। संपादक प्रायः दूसरी प्रकार के संदेह को अनुभूति तो करता है परन्तु इस बात को स्वीकार नहीं करता।
संपादन में संदिग्ध पाठों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। कोई पाठ 'संदेह पूर्वक स्वीकृत' है अथवा 'संदेह पूर्वक त्यक्त' है, इस बात का भी स्पष्ट निर्देश होता है।
त्याग-जब संपादक को यह विश्वास हो जाता है कि अमुक पाठ मौलिक नहीं, तो वह उस को त्याग देता है । ऐसो अवस्था में उस पाठ को या तो उड़ा दिया जाता है या ब्रैकटों में रख दिया जाता है।
सुधार-जब संपादक इस निश्चय पर पहुंचे कि भिन्न भिन्न पाठों में से कोई पाठ भी विषयानुसंगत और लेखानुसंगत नहीं, तो वह उस पाठ को सुधारने का प्रयत्न करता है । सुधारा हुआ पाठ विषयानुसंगत भी हो और लेखानुसंगत भी । इस का विशद विवे वन अगले अध्याय में किया जाएगा।
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