Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 62
________________ ( ४६ ) पुननिर्माण के कुछ नियम पुनर्निर्माण में पाठ को ग्रहण करते समय सब से पूर्व यह प्रश्न उठता है कि 'क्या रचयिता ने यही पाठ लिखा था ?' इस बात का निर्णय करते समय हमें उस रचयिता के भाव, भाषा, शैली आदि का और पूर्वापर प्रसंग का ध्यान रखना पड़ता है । हम यह तो कह सकते हैं कि अमुक पाठ यहां पर हो ही नहीं सकता, परन्तु यह निश्चय पूर्वक नहीं कह सकते कि यहां पर यही पाठ होना चाहिए। हम अपनी समझ के अनुसार पाठ को ग्रहण करते हैं । भिन्न भिन्न विद्वान भिन्न भिन्न निर्णय पर पहुंच सकते हैं और भिन्न मिः पाठ को मौलिक मान सकते हैं। इन पाठों के औचित्य की परस्पर तुलना कैसे की जाए ? इन में से कौन सा पाठ अन्य पाठों से अधिक उचित है ? किस को प्रहण करें ? इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए संपादक को चाहिए कि सब प्रतियों के उपलब्ध पाठों पर अच्छी तरह विचार करे । यदि कोई पाठ अर्थहीन हो, पूर्वापर विरोधी हो, अप्रासंगिक हो, व्याकरण आदि के नियमों का उल्लंघन करता हो, रचयिता की व्यक्तिगत विशेषताओं के अनुकूल न हो, पुनरुक्ति हो, रचयिता द्वारा प्रयुक्त छंदों के नियमों के प्रतिकूल हो, प्रसंग को नष्ट भ्रष्ट करता हो, विचारधारा में ऐसी अड़चन डालता हो जिसका समाधान न हो सके, तो हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि वह पाठ मौलिक नहीं, अशुद्ध है, दूषित है। इसको मूल पाठ में ग्रहण नहीं कर सकते। इसका सुधार करने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि यह दोष किसी प्रकार भी दूर न हो सके, तो पाठ को अति दषित समझ कर छोड़ देना पड़ता है। प्रायः देखा जाता है कि इन दूषित पाठों के स्थान में कोई न कोई ऐसा पाठ रखा जा सकता है । जो प्रस्तुत प्रकरण में संगत हो। इसको सुधार कहते हैं । पाठ वही उचित है जो ठीक अर्थ दे, जो प्रकरण में संगत हो, रचयिता के भावों के अनुकूल हो, उस की साधारण शैली और भाषा के प्रतिकूल न हो, जिस से छंदोभंग न हो, विचार-धारा न टूटे, और पुनरुक्ति न हो । जो पाठ इन सब बातों को पूरा करे, उसे विषयानुसंगत कहते हैं। उस के इस गुण को विषयानुसंगति कहते हैं। प्राचीन और अप्रचलित भाषाओं के विषय में एक और बात का ध्यान रखना चाहिए । हम उन के शब्दों का वह अर्थ लगा सकते हैं जो हमारे लिए तो संतोषप्रद हो, अभीष्ट हो परन्तु मूल रचयिता के लिए ऐसा न हो। हम नहीं कह Aho ! Shrutgyanam

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