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में काग़ज़ का प्रचार था । धारा के राजा भोज के समय में लिखी गई 'प्रशस्तिप्रकाशिका' में और वररुचिप्रणीत 'पत्रकौमुदी' में बतलाया गया है कि राजकीय पत्रों की कैसे तह की जाए, कितना हाशिया छोड़ना चाहिए, बाई ओर के निचले किनारे को थोड़ा सा काटना चाहिए, पिछले पृष्ठ पर 'श्री' शब्द अनेक बार लिखना चाहिए -यह सब ऐसी बातें हैं जिन का संबंध ताड़ या भोज या धातु के पत्रों से नहीं हो सकता प्रत्युत काग़ज़ से ही हो सकता है।
देसी कागज़ चिकने न होने से पक्की स्याही उन के आर पार फैल जाती थी इसलिए उन पर गेहूं या चावल के आटे की पतली लेई लगा कर और उस को सुखा कर, शंख आदि से घोंट लेते थे । इस से कागज़ चिकने और कोमल हो जाते थे। कभी कभी लेई में संखिया या हरिताल भी डाल देते थे । इस से कागज़ को कीड़ा नहीं लगता था।
जैन लेखकों ने कागज़ की पुस्तकें लिखने में ताड़पत्रों का अनुकरण किया है, क्योंकि काग़ज़ की पुरानी पुस्तकों के प्रत्येक पत्रे का मध्य भाग बहुधा खाली छोड़ा हुआ मिलता है । चौदहवीं शताब्दी की लिखी हुई कुछ प्रतियों में प्रत्येक पन्ने और ऊपर नीचे की पाटियों में छेद किए हुए भी देखने में आते हैं।
___भारत में कागज़ की प्राचीनतम पुस्तकें तेरहवी शताब्दी की मिलती हैं, परन्तु मध्य एशिया में भारतीय गुप्तलिपि की चार पुस्तकें और कुछ संस्कृत पुस्तकें मिली हैं जो लग भग पांचवीं शताब्दी की हैं । कई विद्वान इनको न भारतीय काग़ज़ पर और न भारत में लिखी हुई मानते हैं ।
स्याही (मपी)
भारत में नाना वर्णों की स्याही का प्रयोग हुआ मिलता है जैसे काली, लाल, पीली, हरी, सुवर्णमयी, रजतमयी आदि । इन के बनाने की विधि निम्नलिखित है। १. शब्दकल्पद्रुम में 'पत्र' शब्द के विवरण में उद्धृत
पत्रं तु त्रिगुणीकृत्य ऊद्धर्वे तु द्विगुणं त्यजेत् । शेषभागे लिखेद्वर्णान् गद्यपद्यादिसंयुतान् ॥ दक्षिणे पत्रकोणस्य अधस्ताच्छेदयेत् सुधीः।
एकाङ्गलप्रमाणेन राजपत्रस्य चैव हि ॥ २. गफ़-पेपर्ज़ रिलेटिंग टु दि कोलेक्षन अंड प्रेज़र्वेशन ऑफ़ दि रिकार्डज़ने ऑफ़ एन्शंट संस्कृत लिट्रेचर ऑफ़ इंडिया, पृ० १६ ।
३. भारतीय प्राचीनलिपिमाला, पृ० १४५ और उसी पृष्ट का टिप्पण १ ।
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