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कम विक्रम से पूर्व तीसरी शताब्दी का होगा । अजंता की गुहाओं में विविध वर्णों के लेख और चित्र मिलते हैं।
हस्तलिखित पुस्तकों में वैदिक स्वरों के चिह्न, अध्याय- समाप्ति की पुष्पिका, 'भगवानुवाच', 'ऋषिरुवाच' आदि वाक्य, विराम आदि चिह्न प्रायः रंगीन स्याहियों से लिखे जाते थे । जैन पुस्तकों में इन का प्रयोग विशेष रूप से मिलता है । पत्रे के दाएं और बाएं हाशिए की दो दो खड़ी लकीरें प्राय: अलता या हिंगलू से लगाई जाती थीं । जिन अक्षरों या शब्दों को काटना होता था उन पर आम तौर पर हरिताल फेर देते थे । जैन पुस्तकों के लिखने में सोने और चांदी की स्याहियों का प्रयोग भी काफ़ी मिलता है।
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स्याही संबंधी एक आख्यान — द्वितीय राजतरंगिणी' का कर्ता जोनराज अपने ही एक मुकद्दमे की बाबत लिखता है कि मेरे दादा ने दस प्रस्थ भूमि में से एक प्रस्थ बेची थी । उस की मृत्यु के पश्चात् खरीदने वाले दसों प्रस्थ जबरदस्ती भोगते रहे और विक्रय पत्र में 'भूप्रस्थमेकं विक्रीतं' का भूप्रस्थदशकं विक्रीतं' कर लिया । मैंने जब राज सभा में मुकद्दमा क्रिया तो राजा ने विक्रय पत्र को पानी में डाल दिया जिस से नई स्याही के अक्षर तो धुल गए परन्तु पुरानी के रह गए। इस से स्पष्ट है कि स्याही की सहायता से उस राजा ने पूर्ण रूप से न्याय किया ।
कलम ( लेखनी ) – स्याही से पुस्तकें लिखने के लिए नड़ या बांस की लेखनियां काम में आती थीं। अजंता की गुहाओं के रंगीन चित्र महीन बालों की कूर्विका (वर्तिका, या तूलिका ) से लिखे गए होंगे। दक्षिण में ताड़पत्रों पर तीखे गोल मुख वाली धातु शलाका द्वारा अक्षर उत्कीर्ण किए जाते थे ।
१. देखो श्लोक ८००-८०७ ।
२. 'म' से पूर्व लगने वाली रेखा रूप 'ए' की मात्रा को 'द' और 'म' को 'श' बनाने से विक्रयपत्र में यह परिवर्तन हो पाया । यह इस लिए सम्भव था कि शारदा आदि प्राचीन लिपियों में 'ए' के लिए पड़ी मात्रा का प्रयोग होता था जो व्यंजन से पूर्व छोटी या बड़ी खड़ी लकीर के रूप में लगती थी- इस का 'द' आसानी से बन सकता है - और 'म' के ऊपर सिर की लकीर नहीं लगती परन्तु 'श' में लगती हैं, इस लिए सिर की लकीर भर देने से 'श' बन गया ।
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