Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 65
________________ ( ५२ ) अध्याय ६ पाठ-सुधार सुधार की आवश्यकता हम ऊपर बतला चुके हैं कि पुनर्निर्मित पाठ सदा मौलिक पाठ से मिलता जुलता हो ऐसा नहीं होता । उस में कुछ न कुछ दोष होते हैं जो उपलब्ध सामग्री के आधार पर दूर नहीं किए जा सकते । इस लिए मूल पाठ तक पहुंचने के निमित्त हमें और आगे जाना पड़ता है । इन दोषों को यथाशक्ति हटाने के लिए पाठ-सुधार करना होगा। मुधार की परीक्षा-- __ संपादक पूर्ण निश्चय से नहीं कह सकता कि किसी दूषित पाठ को हटा कर इसके स्थान पर कौनसा दूसरा पाठ रखा जा सकता है । इस बात के लिए उसे अपनी बुद्धि और ज्ञान पर आश्रित होना पड़ता है। भिन्न भिन्न विद्वान् भिन्न भिन्न सुधार उपन्यस्त कर सकते हैं । इस लिए यह देखना है कि इन में से कौन सा सुधार अन्य सुधारों से अधिक उचित है ? किस को ग्रहण करें ? इस के उत्तर में हमें पुनः पिछली दोनों बातों अर्थात् विषयानुसंगति और लेखानुसंगति पर ध्यान देना होगा जिन के आधार पर पुनर्निर्माण में अनेक पाठांतरों में से मौलिक पाठ को मालूम किया था, सुधार के सम्बन्ध में भी इन्हीं दोनों बातों से परीक्षा की जाती है। सुधार वही उपयुक्त है जो विषयानुसंगत भी हो और लेखानुसंगत भी। जो सुधार ठीक अर्थ दे, प्रकरण में संगत हो, रचयिता के भावों के अनुकूल हो, उसकी भाषा और शैली के प्रतिकूल न हो, वह विषयानुसंगत है। वह सुधार लेखानुसंगत भी हो, अर्थात् वह उपलब्ध प्रतियों के पाठ भेद का स्रोत हो । यह पाठ भेद लिपिकारों द्वारा कैसे उत्पन्न हुआ, इस बात का समाधान कर सके। लेखानुसंगति के सम्बन्ध में यह आवश्यक है कि प्रस्तुत शोध्य दोष उपलब्ध प्रतियों में लिपि-भ्रम से उत्पन्न हुआ हो जैसे-किसी रचना की प्रतियों में 'विष्टिता' पाठ है और यह अर्थ नहीं देता । इस के स्थान पर कौन सा ऐसा शब्द रखा जाए जो विषयानुसंगत भी हो और लेखानुसंगत भी। यहां पर 'धिष्टिता' लेखानुसंगत है क्योंकि उत्तर भारत की प्राचीन लिपियों में 'ध' और 'व' समान आकृति वाले होते हैं । यदि यह शब्द विषयानुसंगत भी हो तो यह ग्राह्य है। Aho I Shrutgyanam

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