Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 72
________________ परिशिष्ट २ प्राचीन लेखन-सामग्री काव्यमीमांसा में कवि के उपकरण की चर्चा करते हुए राजशेखर ने कहा है 'तस्य सम्पुटिका सफलकखटिका, समुद्कः, सलेखनीयकमषीभा जनानि ताडपत्राणि भूर्जत्वचो वा, सलोहकरटकानि तालदलानि, सुसम्मृष्टा भित्तयः सततसिन्नहिताः स्युः। इस से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस काल में ताडपत्र, भोजपत्र, फल और सम्मृष्ट भित्ति आदि पर लिखने की परिपाटी थी। इसी प्रकार योगिनीतंत्र में वृक्षों के पत्तों के अतिरिक्त धातु के प्रयोग का भी उल्लेख है। अद्यावधि जिस जिस सामग्री पर लेख मिले हैं, वह निनलिखित है (१) ताड़पत्र-ताड़ वृक्ष दक्षिण भारत में समुद्र तट के प्रदेशों में अधिक होता है। पुस्तक लिखने के लिये जो ताडपत्र काम में आते थे उन को सुखा कर पानी में उबालते या भिगो रखते थे। इन को पुनः सुखा कर शंख, कौड़े, चिकने पत्थर आदि से घोंटते थे। इन की लंबाई एक से तीन फुट तक और चौड़ाई एक से चार इंच तक होती है। __ पश्चिमी और उत्तरी भारत वाले इन पर स्याही से लिखते थे परन्तु उड़ीसा और दक्षिण के लोग उन पर तीखे और गोल मुख की शलाका को दबा कर अक्षर कुरेदते थे। फिर पत्रों पर काजल फिरा कर अक्षर काले कर देते थे। कम लम्बाई के पत्रों के मध्य १. काव्य मीमांसा ( बड़ोदा संस्करण ) पृ० ५० । २. भाग ३, पटल ७ में निम्नलिखित श्लोक आते हैं जो शब्दकल्पद्रम में से 'पुस्तक' शब्द के वर्णन से उद्धृत किए हैं : "भूर्जे वा तेजपत्रे वा ताले वा ताडिपत्रके । अगुरुणापि देवेशि ! पुस्तकं कारयेत् प्रिये ! ॥ सम्भवे स्वर्णपत्रे च ताम्रपत्रे च शङ्करि । अन्यवृक्षत्वचि देवि ! तथा केतकिपत्रके ॥ मार्तण्डपत्रे रौप्ये बा वटपत्रे वरानने ! । अन्यपत्रे वसुदले लिखित्वा यः समभ्यसेत् । स दुर्गतिमवाप्नोति धनहानिर्भवेद् ध्रुवम् ॥" Aho ! Shrutgyanam

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