Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 69
________________ ( ५६ ) चाहिए । जब प्रतियों में परस्पर विरोध हो, तो विरोध को दूर करना ही सुधार का कार्य-क्षेत्र है । परन्तु जब प्रतियों में पाठैक्य हो तो सुधार की कोई आवश्यकता नहीं । महाभारत में सुधार के इन सिद्धांतों का अनुसरण किया गया है। जब नेपाल से महाभारत के आदिपर्व की प्राचीनतम उपलब्ध प्रति मिली और इस का अवलोकन किया गया तो महाभारत के सुधार पचास प्रतिशत ठीक उतरे' । व्यक्ति-रचित साहित्य और सुधार -- 1 व्यक्ति-रचित साहित्य के विषय में यह बात सर्वथा लागू नहीं होती । वहां परिस्थिति भिन्न है । किसी रचयिता की कृतियों में जो मौलिक पाठ उपलब्ध हों, उनके आधार पर हम उस की शैली, भाषा, भाव, विचार आदि का अध्ययन कर सकते हैं। संभव है हमें कोई समान संदर्भ ही मिल जावें । इन शुद्ध और मौलिक संदर्भों के परिज्ञान से इम उचित सुधार कर सकते हैं । समान संदर्भों की अनुपस्थिति में हम रचयिता सम्बन्धी अपने विचारों के अनुसार दो पाठांतरों में से एक को अपनायेंगे । यह सम्भव है कि जिस पाठ को हम चुनते हैं, वह मौलिक न हो । शायद रचयिता को दूसरा पाठांतर ही अभीष्ट हो और उस समय वही उस के लिए सन्तोषप्रद हो । सम्भव है वह किसी ऐसे भाव या विचार को सूचित करता हो जिसे समझने में आज हम असमर्थ हैं। जब पाठांतरों के विषय में यह बात है तो सुधार के विषय में तो कभी निश्चय नहीं हो सकता । उचित विधि - इस लिए सबसे अच्छी विधि तो यही है कि हम इन दोनों पद्धतियों के बीच के मार्ग पर चलें । हमें चाहिए कि पहले प्रस्तुत संदर्भ को उपलब्ध पाठांतरों की सहायता से समझने का प्रयत्न करें। जब हमें निश्चय हो जाए कि पाठ दूषित है, तब विषयानुसंगति और लेखानुसंगति की परीक्षा से उपयुक्त सुधार कर लें । यदि कोई प्राचीन समान पाठ या प्रयोग मिल जाए तो हमारा प्रयत्न निश्चित रूप से सफल है । अन्यथा भी हमें काफ़ी हद तक निश्चय हो सकता है कि हमारा सुधार उपयुक्त है । १ भूमिका पृ० ६२-६४ Aho! Shrutgyanam

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