Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 27
________________ ( १४ ) पृष्ठग्रीवः स्तब्धदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं ग्रन्थं यत्नेन प्रतिपालयेत् ॥ वह यह भी जानते थे कि हम अपने आदर्श की प्रतिलिपि पूरी तरह नहीं कर पाए, हमारी प्रति में कुछ न कुछ दोष अवश्य हो गए हैं। जैसे अदृश्यभावान्मतिविभ्रमाद्वा पदार्थहीनं लिखितं मयात्र । तत्सर्वमार्यैः परिशोधनीयं कोपं न कुर्युः खलु लेखकेषु ॥ मुनेरपि मतिभ्रंशो भीमस्यापि पराजयः । यदि शुद्धमशुद्धं वा मह्यं दोषो न दीयताम्' ॥ परंतु कई प्रशस्तियों में वह अपने आप को निर्दोष बतलाते हैं और सत्र अशुद्धियां आदर्श के सिर मढ़ देते हैं, जैसे यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न विद्यते ॥ इस से स्पष्ट है कि प्रतियों में लिपिकार अशुद्धियां कर ही जाते थे । अशुद्धियां दो प्रकार की हैं - (१) दृष्टिविभ्रम और (२) मति - विभ्रम से उत्पन्न हुई अशुद्धियां । अक्षरों आदि का व्यत्यय, आगम अथवा लोप दृष्टिदोष के उदाहरण हैं जो लिपिकार के नेत्र अपने दौर्बल्य से और एकाग्रचित्तता के अभाव से करते हैं । वह अपने आदर्श शुद्धियों को भी सार्थ समझने का प्रयत्न करता है जिस से विचारदोष पैदा हो जाते हैं । कई बार ऐसा होता है कि लिपिकार की अशुद्धियां उस के आदर्श अथवा मूल या प्रथम प्रति से ही आई होती हैं । यदि आदर्श कहीं से टूट फूट गया हो, तो लिपिकार उन त्रुटित अंशों को अपनी मति के अनुसार पूरा करने का प्रयत्न करता है इससे प्रतिलिपि में कुछ अशुद्धियां आजाती हैं । प्रतियों का शोधन - लिपिकार को अपनी कुछ अशुद्धियों का ज्ञान होता है । वह स्वयं इनको दूर कर देता है । पर कभी कभी अपने लेख में कांट छांट न करने को इच्छा से उन का सुधार नहीं करता । यदि उस के अक्षर सुंदर हुए- जैसा कि प्राचीन काल में प्रायः होता था- - तो यह प्रलोभन और भी ज़ोर पकड़ता है । कहीं पर वह इन का सुधार इस लिये भी नहीं करता था कि इन से अर्थ में कोई विपर्यय नहीं होता था । १. मैक्सम्यूलर संपादित ऋग्वेद (दूसरा संस्करण ) भाग १, भूमिका पृ०१३, टिप्पण | Aho! Shrutgyanam

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