Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 41
________________ ( २८ ) संकर के बढ़ने के साथ साथ उस का सुलझाना भी कठिन होता जाता है । इस से प्रतियों में शुद्धता एवं अशुद्धता का समावेश तो अवश्य होता है परंतु इस बात का निर्णय सरल नहीं कि किस प्रति में इसके कारण कितनी शुद्धता और कितनी अशुद्धता आई है। संकीर्ण प्रति को लिखते समय लिपिकार के सामने कई पाठांतर उपस्थित होते हैं। इन में से लिपिकार अपनी बुद्धि के अनुसार पाठ चुन लेता है । परंतु लिपिकारों की विद्वत्ता प्राय: कम ही होती है, इसलिए उनका चुनाव सदा शुद्ध नहीं हो सकता जब कि विद्वान् शोधक भी पूरी तरह शोधन नहीं कर पाते । अत: संकर प्रायः पाठ-अशुद्धि को बढ़ाता है। फिर भी संकीर्ण प्रतियों की अपनी महत्ता होती है। जब किसी संकीर्ण प्रति के अनेक आदर्शों में से कोई एक आदर्श लु हो चुका हो तो इसी संकीर्ण प्रति के आधार पर उस लुप्त आदर्श के पाठों का अनुमान किया जाता है। पंचतंत्र की पूर्णभद्रीय धाग में कुछ पाठ एवं स्थल ऐसे हैं जिन के आधार पर हर्टल और इजर्टन उस में पंचतंत्र की एक लुप्त धारा की पुट मानते हैं। पंचतंत्र की संकीर्ण धाराएं-पंचतंत्र की कुछ धाराएं संकीर्ण संबंध का अच्छा उदाहरण हैं। पंचतंत्र पुनर्निमाण में इजर्टन' पंचतंत्र की निम्नलिखित धाराएं मानता है - १. तंत्राख्यायिका, साधारण अथवा प्रचलित पंचतंत्र तथा पूर्णभद्रीय पंचतंत्र । २. दक्षिणी और नेपाली पंचतंत्र, तथा हितोपदेश । ३. सोमदेव का कथासरित्सागर और क्षेमेंद्र की बृहत्कथामंजरो, जो बृहत्कथा की दो भिन्न धाराएं हैं। (४) पहलवी भाषांतर । इन धाराओं का चित्र इस प्रकार है। १. हर्टल ने तंत्राख्यायिका में कई पाठ-सुधार किए, परंतु इजर्टन के मतानुसार वह नहीं होने चाहिएं । उन में से वह कुछ सुधारों को ही ठीक मानता है । देखो पंचतंत्र रीकन्स्ट्रक्टिड भाग २, पृष्ठ २६०-२६३ । २. वही, अध्याय २। Aho ! Shrutgyanam

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