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(१) एक प्रति
जब संपादनीय कृति की केवल एक ही प्रति मिलती हो, तो संपादक का कर्तव्य है कि उस प्रति को ध्यान पूर्वक पढ़े और जहां तक संभव हो उस के शुद्ध रूप में ही उस के पाठों को उपस्थित करे । इस के लिए आवश्यक है कि वह उस का बार बार सूक्ष्म निरीक्षण करे, उस का पूरा पूरा परिचय प्राप्त करे । अधिकतर यह बात शिलालेखों और ताम्रपत्रों के विषय में लागू होती है । मध्य एशिया से बौद्ध पुस्तकों के जो अंश मिले हैं उन की प्राय: एक एक ही प्रति उपलब्ध हुई है । कई पुस्तकें भी एक ही प्रति के आधार पर हम तक पहुंची हैं, जैसे विश्वनाथ का कोशकल्पतरु, नान्यदेव का भारत भाष्य, पृथ्वीराजविजय आदि । (२) समान पाठ - परम्परा की अनेक प्रतियां
जब संपादनीय कृति की समान पाठ-परम्परा वाली अनेक प्रतियां विद्यमान हों, तो उन के पारस्परिक संबंध के परिज्ञान से पहले उन के आदर्शों और काल्पनिक मूलादर्श का पता लगाया जाता है 1
(क) जब सब प्रतियां का मूलादर्श उपलब्ध हो तो संपादक का कार्य सरल हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में प्रतिलिपियों की उपेक्षा की जा सकती है। इस से संपादक को केवल एक मूलादर्श पर ही आश्रित होना पड़ता है। परंतु जहां प्रतिलिपि होने के पश्चात् मूलादर्श का कुछ भाग नष्ट भ्रष्ट हो चुका हो, तो हमें उस नष्ट भाग के लिए प्रतिलिपियों की सहायता लेनी पड़ेगी ।
(ख) जब मूलादर्श विद्यमान न हो, परंतु उस की सत्ता के बाह्य प्रमाण मौजूद हों, तो पहले मूलादर्श का पुनर्निर्माण करना चाहिए। रायल एशियाटिक सोसायटी की बंबई ब्रांच की पृथ्वीराजरासो की प्रति नं B. D. २७४ के अवलोकन से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि इस का आदर्श अमुक प्रति थी क्योंकि इस में कई स्थानों पर समयों की अंतिम प्रशस्तियों को लिखा हुआ है जो कि इस के आदर्श में विद्यमान थीं ।
(ग) जब किसी मूलादर्श के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले बाह्य प्रमाण तो विद्यमान न हों परंतु प्रतियों की पाठ- समानता से अनुमान हो सके कि यह सब एक ही मूलादर्श के आधार पर लिखित हैं तो इस प्रकार के मूलादर्श को काल्पनिक या अनुमित मूलादर्श कहते हैं । ऋगर्थदीपिका के संपादन में प्रयुक्त P, D, M व्यपदेश की तीनों प्रतियों में से कोई भी एक दुसरे की प्रतिलिपि नहीं और न ही कोई
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