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क्षेमेंद्र संकीर्ण है, क्योंकि इस में तंत्राख्यायिका की पुट स्पष्ट प्रतीत होती है । अतः जब इसके पाठ धारा नं० २ और ४ के पाठों से मिलते हैं तभी महत्त्वपूर्ण हैं : जव नं० १ से मिलते हैं तब नहीं । पूर्णभद्र का पंचतंत्र भी संकीर्ण है क्योंकि इस में पंचतंत्र की एक पांचवीं धारा से सहायता ली गई है जो अब स्वतंत्र रूप में अलभ्य है । इस अलभ्य धारा का अन्य धाराओं से इतना ही संबंध है कि इन सब का मूल-स्रोत एक है । इस धारा को हर्टल' प्राकृतमयी मानता है क्योंकि पूर्णभद्र में कई स्थल ऐसे हैं जो तंत्राख्यायिका और प्रचलित पंचतंत्र से भिन्न हैं और इन स्थलों की भाषा पर प्राकृत का प्रभाव स्पष्ट है। प्राकृत-प्रभाव के उदाहरण - वणिजारक (पृ०७३, पंक्ति १४); स्वपिमि लमः ( १२२, १८); अरघट्ट खेटयमान (२२४, ३८) संप्रहार ( १६६, २); चंद्रमती (१४८,४); दंडपाशिक, दंडपाशक के स्थान पर (१४७, १२.१६ ; १५१,२-६) आदि आदि । हो सकता है कि हर्टल का यह मत मान्य न हो और यह अलभ्य धारा जैन संस्कृत में हो । क्योंकि जैनों द्वारा प्रणीत संस्कृत ग्रंथों की भाषा ( जैन संस्कृत । के अध्ययन ने सिद्ध कर दिया है कि इस में प्राकृत-प्रभाव आदि कई अपनी ही विशेषताएं हैं जो साधारण संस्कृत में नहीं हैं। परंतु यह निश्चित है कि पूर्णभद्र का पंचतंत्र पंचतंत्र की पांचवीं धारा की सत्ता को प्रमाणित करता है और उस धारा के लिए इस का अपना महत्व है।
प्रतिएं हम तक किस परिस्थिति में पहुंची हैं। किसी ग्रंथ के संपादन में उस की उपलब्ध प्रतिएं हम तक किस परिस्थिति में पहुंची हैं, उन की संख्या और विशेषताएं क्या है - इन सब बातों से भी संपादक के कार्य में अंतर पड़ जाता है । इन बातों के अनुसार निम्नलिखित परिस्थितियां उपस्थित होती हैं
(१) जब किसी रचना की एक ही प्रति उपलब्ध हो ।
(२) जब किसी रचना की समान पाठ-परम्परा वाली अनेक प्रतियां उपलब्ध हों।
(३) जब किसी रचना की भिन्न भिन्न पाठ-परम्परा की अनेक प्रतियां हों।
१. हर्टल संपादित पूर्णभद्र का पंचतंत्र, भाग २, १४, १९-२० पृ० ।
२. फ़ेस्टश्रीफ्ट जेकब वाकरनागल में ब्लूमफ़ील्ड का लेख पृ० २२०-३०; हटल-ऑन दि लिट्रेचर श्राफ दि श्वेतांबर जैनज़; लेखक द्वारा संपादित चित्रसेनपद्मावतीचरित्र, भूमिका, पृ० २३-३० ।
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