Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 45
________________ ( ३२ ) बाह्य प्रमाण यह सिद्ध करता है कि वह सब एक ही मूलादर्श की प्रतियां हैं। उन के पाठों की समानता के कारण ही उन को एक काल्पनिक मूलादर्श के आधार पर लिखित माना है' । (३) भिन्न पाठ - परम्परा की अनेक प्रतियां जब संपादनीय कृति की भिन्न भिन्न पाठ परम्परा वाली अनेक प्रतियां उपलब्ध हों, तो उनके पाठभेद के कारणों का विवेचन भी करना चाहिए जो इस तरह हो सकता है(क) क्या पाठ-भेद स्त्रयं रचयिता द्वारा हुआ है ? यदि रचयिता स्वयं अपनी मूल प्रति का शोधन करे तो उस प्रति में कहीं कहीं दो दो या अधिक पाठ हो जावेंगे । इन में से एक तो मूल पाठ में होगा और दूसरे शुद्ध पाठ हाशिए में या पंक्तियों के बीच लिखे होंगे। इस मूल प्रति से प्रतिलिपि करते समय एक लिपिकार एक पाठ को ले सकता है, तो दूसरा दूसरे पाठ को । इस प्रकार वह प्रतियां एक आदर्श की प्रतिलिपियां होते हुए भी भिन्न भिन्न पाठ - परम्परा को धारण करलेंगी । भवभूति' के विषय में भांडारकर और टोडरमल का मत है कि उस ने स्वयं मालतीमाधव और महावीरचरित की मूल प्रतियों को शोधा है । इस कारण उपलब्ध प्रतियों में कहीं कहीं पाठ-भेद हो गए। मालतीमाधव के संपादन में भांडारकर ने ह प्रतियों का प्रयोग किया है। यदि किसी पाठ विशेष के लिए इन प्रतियों के दो गण बनते हैं - K1, K2, N, C और A, B, Bh, C, D, तो किसी दूसरे पाठ के लिए इस प्रकार दो गण बन जाते हैं - A, B, C, D, K, N, और Bh, K2, OI उदाहरण - मालतीमाधव अंक १ । पं० । १२ कल्याणानां त्वमसि महसां भाजनं विश्वमर्ते (A, B, D, K1, N) कल्याणानां त्वमिह महसां ईशिषे त्वं विधत्ते (Bh, K2, O) कल्याणानां त्वमसि महसां ईशिषे त्वं विधत्ते (C) इससे ज्ञात होता है कि भिन्न भिन्न पाठों के लिए भिन्न भिन्न गण बन जाते हैं । इस का समाधान संकीर्ण संबंध के आधार पर हो सकता है, परंतु अधिक संभव यही है कि कवि ने स्वयं अपनी मूलप्रति का शोधन किया था क्योंकि समय ग्रंथ में प्रायः यही परिस्थिति देखने में आती है । भवभूति द्वारा शोधित मूलप्रति से एक लिपिकार ने एक पाठ लिया तो दूसरे ने दूसरा और इस तरह पाठ भेद उत्पन्न हो गया । १. डा० लक्ष्मण स्वरूप संपादित भाग १, पृ० ४० । २. देखो ऊपर, अध्याय २, टिप्पण नं० ५ और ६ | ३. भांडारकर संपादित मालतीमाधव, भूमिका, पृ० ६ । Aho! Shrutgyanam

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