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(ख) क्या पाठ-परम्परा में भेद स्थान-भेद से उत्पन्न हो गया है ? यह बात गमायण, महाभारत आदि बृहत्काय ग्रंथों के विषय में प्रायः सत्य होती है, विशेषतः जब वह ग्रंथ समष्टि-रचित हो। महाभारत की उत्तरी, दक्षिणी, काश्मीरी, नेवारी (नेपाली), बंगाली आदि धाराएं प्रसिद्ध हैं । टोडरमल' ने महावीरचरित, की दो शाखाएं मानी हैं-उत्सरी और दक्षिणी। वह उत्तरी शाखा को स्वयं भवभूति द्वारा शोधित मानता है, और दक्षिणी को शोधन से पूर्व रूप में जो केवल पहले पांच अंकों तक ही था। फिर भी दक्षिणी शाखा में कहीं कहीं बहुत अच्छे पाठ मिलते हैं। टोडरमल दे. मतानुसार इस का कारण यह था कि दक्षिणी विद्वानों ने भवभूति के मूल पाठ का संशोधन कर लिया था क्योंकि दक्षिण कुछ काल तक विद्वत्ता का भारी केंद्र रहा।
(ग) क्या पाठ-भेद का कारण रचयिता या अन्य व्यक्तियों द्वारा शोधन के अतिरिक्त कुछ और है ? कई बार मुलादर्श में अनेक पाठ स्थित होते हैं। जैसे किसी पाठक ने अपनी प्रति में आसानी के लिए शब्दार्थ और अन्य टिप्पण लिख लिएइस तरह उस प्रति में एक पाठ के स्थान पर दो दो या तीन तीन पाठ मालूम पड़ेगें या दो दो समानार्थ शब्द इकट्ठे मिलेंगे, जिस से पुनरुक्ति हो जाएगी । यदि यह प्रति प्रतिलिपियों के लिए आदर्श बने तो पाठ-भेद का कारण बन जाएगी।
(घ) लोप, प्रक्षेप, संक्षेप, परिवर्तन आदि से भी किसी रचना की पाठपरम्पराओं में भेद पड़ सकता है ।
चौथा अध्याय प्रतियों में दोष और उन के कारण
संपादनीय कृति के संबंध में उपलब्ध सामग्रो के सूक्ष्म अवलोकन और मिलान से प्रायः इस बात का परिझान प्राप्त होता है कि कौन कौन सी सामग्री लिपिकाल तथा अन्य विशेषताओं के कारण विश्वसनीय है। इसके आधार पर प्राचीनतम पाठ का पुनर्निर्माण किया जासकता है । यह पुननिर्मित पाठ रचयिता की मौलिक कृति के काफी निकट होता है । इसमें कुछ पाठ ऐसे रह जाते है जो अपने मौलिक रूप में नहीं होते । इन पाठों की संख्या रचना विशेष के विषय, भाषा आदि और उस की प्रतियों के इतिहास के अनुसार न्यूनाधिक होती है। इन को साधारणतया 'दषित पाठ'
१. महावीर चरित, भूमिका पृ०६ ।
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