Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 36
________________ ( २३ ) मौलिक पाठ मिलते हैं जैसे १, ४/५ में ' अहिणी दु' के स्थान पर इस प्रति में 'अहिअरीअदु' पाठ है जो शाकुंतल की दक्षिणी धारा में भी मिलता है । अतः यह पाठ मौलिक है। ___ यह देखना आवश्यक है कि किसी प्रति में सारा पाठ समान रूप से लिखा गया है या कि नहीं। हो सकता है कि एक ही प्रति के भिन्न भिन्न भाग भिन्न भिन्न आदर्शों के आधार पर एक या अनेक लिपिकारों द्वारा लिपिकृत हों । यह प्रायः महाभारत, पुराण, पृथ्वीराजरासो आदि बृहत्काय ग्रंथों में अधिक संभव होता है। इस से सारी प्रति की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता समान नहीं रहती । ऐसी परिस्थिति में भिन्न भिन्न भागों की विश्वसनीयता का जुदा जुदा निर्णय करना पड़ता है । कई बार ऐसा होता है कि आदर्श के कुछ पत्रे गुम हो चुके होते हैं या उस में कुछ पाठ उपलब्ध न हो तो भी लिपिकार इन लुप्त अंशों को किसी दूसरे आदर्श के आधार पर पूरा कर सकता है। इस से भी सारी प्रति की रिश्वसन यता एक सी नहीं रहती। देखने में आता है कि प्रतिलिपि हम तक अपने असली रूप में नहीं पहुंचती । प्रायः इस में अशुद्धियों को दूर करने का प्रयत्न किया होता है । इस के पाठ को कांटा छोटा होता है । यह शोधन स्वयं प्रति का लिपिकार, रचयिता या कोई अन्य विद्वान करता था। यदि एक ही प्रति को कई शोधकों ने शुद्ध किया हो तो भिन्न भिन्न शुद्धियों की विश्वसनीयता में अंतर होगा। कई बार तो ऐसा भी होता है कि शोधक अपनी ओर से तो विद्वत्ता दिखलाने का प्रयत्न करता है परंतु वास्तव में वह शुद्ध पाठ को अशुद्ध कर देता है। इसलिए हमें भली प्रकार जान लेना चाहिए कि प्रति में कौन कौन से हाथों ने काम किया है। इसी लिए इस बात का निर्णय करना भी आवश्यक है कि शोधन से पहले प्रति में क्या पाठ था । अकसर देखा जाता है कि शोधनीय प्रति में जो पाठ अन्य प्रतियों से भिन्न हो, शोधक प्रायः उस को हटा कर उपलब्ध प्रतियों के साधारण पाठ को रख देता है, चाहे पहला पाठ शुद्ध ही क्यों न हो। लिपिकाल प्रतिलिपियों की तुलनात्मक विश्वसनीयता की जांच काफ़ी हद तक उन के लिपिकाल पर भी निर्भर होती है। इसलिए हमें संपादनीय ग्रंथ की जितनी प्रतियां उपलब्ध हों उन को उन के लिपिकाल के अनुसार क्रमबद्ध कर लेना चाहिए । योरुप में प्रतियों का लिपिकाल प्रायः नहीं दिया होता, इसलिए उनका क्रम उनकी लिपि, Ahol Shrutgyanam

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