Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 37
________________ ( २४ ) लेखन-सामग्री आदि के आधार पर निश्चित करना पड़ता है' । परंतु भारत में यह दशा इतनी शोचनीय नहीं। यहां पर लिपिकाल अधिकतर प्रतियों में दिया होता है। कई प्रतियों में आदर्श का काल भी दिया होता है। यदि कोई प्रति अंत में त्रुटेत या खंडित हो तो अवश्य इस के निश्चय में कठिनाई पड़ती है । तब लिपि, लेखन-सामग्री आदि के आधार पर इन का लिपिकाल निर्धारित किया जाता है । लिपिकाल प्रति के अंत में दी हुई लिपिकार की प्रशस्ति या पुष्पिका में दिया होता है जिस में वह अपना व्यक्तिगत वृत्तांत भी देता है । प्रति जितनी प्राचीन होगी, उस की विश्वसनीयता भी उतनी ही अधिक होगी। परंतु कहीं कहीं यह नियम लागू नहीं होता, क्योंकि हो सकता है कि कोई अर्वाचीन प्रति 'ग' किसी अति प्राचीन आदर्श 'ख' के आधार पर लिखित हो। दूसरी और प्रतियां 'ज', 'झ', 'ब' भी हों जो इस से हों तो प्राचीनतर, परंतु जिन का आदर्श 'छ' पहली प्रति के आदर्श 'ख' से कम प्राचीन हो । ऐसी अवस्था में अर्वाचीन प्रति 'ग' दूसरी 'ज' 'झ' आदि प्राचीन प्रतियों से अधिक विश्वसनीय हो सकती है। यह बात निम्नलिखित चित्र से भली प्रकार स्पष्ट हो जावेगी। क (१०) ख (११) च (११) ग (१६) ज (१४) झ (१५) ब (१५) (नोट-इस चित्र में 'क', 'ख' आदि अक्षर प्रतियों के नाम हैं और (१०), (११) आदि अंक प्रतियों के लिपिकाल की शताब्दियां हैं।) ___ यदि हर एक लिपिकार पांच प्रति शत अशुद्धियां करे, तो 'ग' ६०.२५ प्रति शत और 'ज' ८५.७५ प्रतिशत और 'झ' तथा 'अ' तो ८१५ प्रतिशत शुद्ध होंगी। इस से स्पष्ट ज्ञात होता है कि 'ज', 'झ', और 'ब' की अपेक्षा 'ग' अधिक! विश्वसनीय है । लिपिकाल-निर्धारण जब प्रतियों के लिपिकाल का निाश्चत ज्ञान न हो, तो उन का परस्पर संबंध ५, हाल- कम्पैनिअन टु क्लासिकल टैक्स्टस, पृ० १२८ । Aho ! Shrutgyanam

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