Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 28
________________ ( १५ ) अशोक की धर्मलिपियों और अन्य प्राचीन शिलालेखों में. अशुद्ध अथवा फ़ालतू अक्षर, शब्द आदि को काटा होता है । प्राचीन पुस्तकों में ऐसे अक्षरों के ऊपर या नीचे बिंदु अथवा छोटी छोटी खड़ी रेखाएं बनाई मिलती हैं । कुछ शताब्दियों से इसी निमित्त हड़ताल ( हरिताल ) का प्रयोग भी मिलता है । कभी कभी हड़ताल से कटे हुए भाग पर भी लिखा होता है । प्राचीन लेखों में छुटे हुए अक्षर, शब्द आदि पंक्तियों के ऊपर, नीचे या बीच में, या अक्षरों के बीच में लिखे मिलते हैं । परंतु यह बतलाने के लिए कोई संकेत नहीं होता कि यह पाठ कहां पर आना है । अर्वाचीन लेखों और पुस्तकों में इस स्थान का संकेत काकपाद या हंसपाद (+, x, AVV) या स्वस्तिक से किया होता है । पाठ प्राय: पन्ने के चारों ओर के हाशिए में दिया होता है। किसी किसी प्रति में जिस पंक्ति से वर्ण छूटे हों, उस की संख्या भी पाठ के साथ मिलती है । जान बूझ कर छोड़े हुए पाठ को, या आदर्श के प्रति अंश को सूचित करने के लिए उस का स्थान रिक्त छोड़ दिया जाता है । कहीं कहीं इस स्थान पर बिंदुओं का या छोटी खड़ी रेखाओं का प्रयोग मिलता । कुंडल या स्वस्तिक पाठ्य पाठ के सूचक हैं I कई प्रतियां स्वयं रचयिता द्वारा संशोधित भी मिलती हैं। शोधन करके वह सारी पुस्तक फिर से लिखता था, या मूलप्रति को ही शुद्ध कर लेता था । रचयिता द्वारा शोधित यह मूलप्रति लिपिकारों की आदर्श प्रति बन जाती थी । इस से पाठांतरों की उत्पत्ति हो सकती है— कहीं पर आदर्श में दो पाठ हुए, एक तो पहला पाठ और दूसरा उस का शुद्ध रूप । चूंकि इन में से शुद्ध पाठ को सूचित करने का कोई संकेत न होता था इसलिए इन में से लिपिकार एक को ग्रहण करता था और दूसरे को छोड़ देता था या हाशिए आदि में लिख लेता था । इस प्रतिलिपि के आधार पर लिखी हुई कुछ प्रतियों में दूसरे पाठ बिलकुल छूट सकते हैं । मालतीमाधव की प्रतियों के निरीक्षण से वृद्ध भांडारकर'ने निर्णय किया कि भवभूति ने स्वयं अपनी मूलप्रति का शोधन किया होगा । इसी प्रकार टोडर मल ने महावीरचरित के संबंध में कहा है | शोधन कार्य तीर्थस्थानों पर बड़ी सुगमता से हो सकता था । कई धनिक अपने विद्वान् मित्रों के साथ अपनी प्रतियों को भी तीर्थों पर जाते थे । वहां १. भांडारकर संपादित मालतीमाधव, भूमिका पृ० ६ । २. टोडर मल संपादित महावीरचरित, भूमिका पृ० ८-६ । Aho! Shrutgyanam

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