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इन को अपनी पुस्तकें शोधने का अवसर मिलता था क्योंकि इन स्थानों पर विद्वानों का समागम होता था ।
विद्या-प्रेमी राजाओं द्वारा नियुक्त विद्वान् भी शोधन किया करते थे ।
सहायक सामग्री
किसी रचयिता की कृतियां पूर्ण रूप से अपनी नहीं होतीं । इस में संदेह नहीं कि वह उस रचयिता के व्यक्तित्व की छाप लिए रहती हैं, परंतु उन की भाषा, भाव, शैली आदि उस के पूर्ववर्ती ग्रंथकारों से प्रभावान्वित होते हैं। उन पर तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि परिस्थितियों का प्रभाव भी यथोचित रूप में होता है । इसी प्रकार उस रचयिता का प्रभाव उस के परवर्त्ती ग्रंथकारों पर भी पड़ता है । अत: इस संसार में कोई रचयिता एकाकी नहीं होता । इसलिए उस रचयिता की कृतियों की अपनी प्रतिलिपियों के अतिरिक्त कुछ सामग्री ऐसी भी प्राप्त हो जाती है जो उस रचना विशेष के अवतरण, भाषांतर, टीका-टिप्पण इत्यादि के रूप में हो सकती है। इसको हम सहायक सामग्री कहते हैं क्योंकि यह मूल ग्रंथ के संपादन में सहायता मात्र होती है । इस के आधार पर संपादन नहीं किया जाता ।
यदि कोई रचयिता ऐसा हो जिस का दूसरों से संबंध स्थापित न हो सके, और उस की कृति केवल प्रतियों के आधार पर ही हमें उपलब्ध हो, तो कोई नहीं जान सकता कि उसकी प्राचीनतम प्रति के लिपिकाल के पूर्व उस रचना की क्या अवस्था थी । उस की प्रतियों का निरीक्षक केवल इतना बतला सकता है कि अमुक रचना की उपलब्ध प्रतियां किसी काल, देश और लिपि विशेष के प्रथमादर्श के आधार पर लिखित हैं। वह नहीं कह सकता कि उपलब्ध प्राचीनतम प्रति के लिपिकाल से बहुत पहले उन कृति की क्या दशा थी, वह कौन कौन से देश में प्रचलित थी, आदि । संपादक सहायक सामग्री के आधार पर उस रचना के इतिहास का अनुमान कर सकता है ।
यह सहायक सामग्री निम्नलिखित रूपों में प्राप्त हो सकती हैउद्धरण
पुस्तक लिखते समय, ग्रंथकार अपने सिद्धांत की पुष्टि के लिए अन्य पुस्तकों से समान पंक्तियां ज्यों की त्यों ग्रहण कर लेता है; इन को उद्धरण या अवतरण कहते हैं ।
उद्धरण प्रायः सारे साहित्य में मिलते हैं और काव्य, व्याकरण. छंदस् आदि
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