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( १७ ) पारिभाषिक साहित्य में प्राचुर्य से मिलते हैं । पारिभाषिक ग्रंथों के रचयिता प्राचीन सिद्धांतों के विशद विवेचन तथा आलोचन के लिए और अपने नियमों को समझाने के लिए उदाहरण रूप में पूर्ववर्ती मौलिक ग्रंथों से पाठ उद्धृत करते हैं । परंतु यह आवश्यक नहीं कि जिस लेखक या ग्रंथ से पाठ उद्धृत किया हो उस का नाम दिया हो- - प्रायः बिना नाम ही उद्धर मिलते हैं ।
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उदाहरण- बृहद्देवता का लगभग पांचवां भाग षडगुरुशिष्य ने सर्वानुक्रमणी की टीका में, सायण ने अपने भाष्यों में और नीतिमञ्जरी में उद्धृत किया गया है । इनकी सहायता से मॅक्डॉनल ने बृहद्देवता के कई पाठों का निश्चय किया जो कि वैसे संदिग्ध रह जाते; कहीं कहीं पाठ सुधार भी किया है, जैसे - ( अध्याय ५, श्लोक ३४ ) " ददौ च रौशमः" के स्थान पर fk प्रतियों में " ददौ न रौशनो ", 6 में “ ददै गो रौशनौ ", " में " ददौ तदौ शनौ ", और m2 में " ददौ तदाशनौ पाठ थे और नीतिमंजरी (५, ३०, ५५ ) के आधार पर उपर्युक्त पाठ निश्चित किया गया । (ऋ० ७, श्लो० ६८) 'अयमन्त: परिध्यसुः ' के स्थान पर प्रतियों में भिन्न भिन्न अपपाठ थे जिन को सायण (ऋग्० १०, ६०, ७) के अनुसार सुधारा है । इन्हीं के आधार पर बृहद्देवता की बृहद्धारा B के कई स्थलों को मॅक्डॉनल ने मौलिक माना है और उनका पुनर्निर्माण किया है । जैसे अ० ४ श्लो० २३; ५, ५६-५८; ५, ६५, ६६ ; ६, ५२-५६ ; ७, ४२-४३ ; ७, ६५ आदि नीतिमंजरी ओर सर्वानुक्रमणी की षड्गुरुशिष्यप्रणीता टीका में मिलते हैं, अतः इन में मौलिकता हो सकती है ।
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उद्धरणों के विषय में यह बात ध्यान देने योग्य है कि जिन ग्रंथों में उद्धर मिलते हैं वह तुलनात्मक रीति से संपादित हो चुके हैं या नहीं । यदि नहीं तो उनके पाठान्तरों को अवश्य देखना चाहिए । संभव है इन पाठांतरों में से ही कोई पाठ मौलिक हो । दूसरी बात यह है कि प्राचीन लेखक अन्य पुस्तकों को प्रायः अपनी स्मृति से ही उद्धृत करते थे और उन को मूलपंक्ति से मिलाने का प्रयत्न न करते थे । अतः ऐसे उद्धरणों का महत्त्व इतना अधिक नहीं । परंतु सिद्धांत ग्रंथों में उद्धरणों को सावधानता से ग्रहण किया जाता था, इसलिए यह अधिक विश्वसनीय होते हैं ।
सुभाषित-संग्रह
यदि संपादनीय कृति के कुछ अवतरण किसी सुभाषित-संग्रह में मिलते हों, तो वह संग्रह संपादन में यथोचित सहायता दे सकता है, क्योंकि वह संग्रह प्रस्तुत प्रथ की उपलब्ध प्रतियों से प्रायः अधिक प्राचीन होता है । कुछ सुभाषित संग्रह यह हैं - संस्कृत - कवीन्द्रवचनसमुच्चय ( दशवीं शताब्दी विक्रम ) ;
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