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( १८ ) श्रीवरदास की सदुक्ति ( सूक्ति ) कर्णामृत (वि० सं० १२६२ ); जल्हण की सदुक्तिमुक्तावली (वि० सं० १३०४); शार्ङ्गधरपद्धति (वि० सं० १४२०) आदि।।
प्राकृत-हाल की सत्तसई ; मुनिचन्द्र का गाथाकोश (वि० सं० ११७६ ); जयवल्लभ का वजालग्ग ; समयसुन्दर की गाथासहस्री (वि० सं: १६८७) आ.द।।
भाषांतर या अनुवाद-किसी शब्द वाक्य या पुस्तक के आधार पर दूसरी भाषा में लिखे हुए शब्द, वाक्य, पुस्तक आदि को अनुवाद या भाषान्तर कहते हैं।
अनुवाद से अनूदित और अनदित से अनुवाद ग्रंथों के संपादन में पर्याप्त सहायता मिलती है । जब यह अनुवाद प्रस्तुत ग्रंथ की उपलब्ध प्रतियों से प्राचीन हो, तो यह संपादन-सामग्री का एक अनुपेक्षणीय और महत्त्वपूर्ण अंग बन जाता है ।
___ बौद्ध धर्म की महायान शाखा का साहित्य बहुधा संस्कृत भाषा में था। इस के अनुवाद चीनी तथा तिब्बती भाषाओं में अति प्राचीन काल में हो चुके थे। अतः इन अनूदित ग्रंथों के संपादन में अनुवादों का प्रचुर प्रयोग किया जाता है जैसे जॉनस्टन ने अश्वघोष के बुद्धचरित में किया है। इसी प्रकार महाभारत के ग्यारहवीं शताब्दी में किए हुए भाषा अनुवाद तलगू तथा जावा की भाषा में मिलते हैं । इन का प्रयोग महाभारत के संपादन में पूना वालों ने किया है। कई स्थानों पर इन अनुवादों ने संपादकों द्वारा अंगीकृत पाठ को प्रामाणिक सिद्ध किया है।
. अनूदिन परंतु अब अनुपलब्ध रचना के पुनर्निर्माण में अनुवाद ही का आश्रय लेना पड़ता है जैसे कुमारदास का जानकीहरण जो चिरकाल से भारत में लुप्त हो चुका था । इस का संस्कृत संस्करण लंका की भाषा (Simhalese) के सब्दशः अनुवाद के आधार पर निकला था । अश्वघोष के बुद्धचरित के सर्ग है के २६-३७ श्लोकों का कुछ अंश त्रुटित हो गया था । इसका पुनर्निर्माण जॉनस्टन ने तिब्बती अनुवाद के आधार पर किया है ।
टीका, टिप्पनी, भाष्य, वृत्ति आदि__ टीकाओं में प्रायः प्रतीक (ग्रंथ की पंक्ति या श्लोक का अंश ) को उद्धत करके उस का अर्थ और मूल व्याख्या दी जाती है । इन प्रतीकों से उस ग्रंथ के तात्कालिक पाठों का पता चल सकता है । कई बार टीकाकार अपने समय में उपलब्ध प्रतियों का मिलान कर के सम्यक् या समीचीन पाठ ग्रहण कर लेते थे और
१. देखो महाभारत उद्योगपर्वन् (पूना १६४०), भूमिका पृ० २२ । २. ड ० ई० एच० जॉनस्टन संपादित बुद्धचरित ( लाहौर, १६३५),
भूमिका पृ०८।
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