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( २० ) मेघदूत काव्य की समस्या-पूर्ति के रूप में जिनसेन ने एक स्वतंत्र ग्रंथ 'पार्वाभ्युदय' की रचना की। समान पाठ
महाभारत, पुराण आदि कई ग्रंथ किसी व्यक्ति विशेष की कृति नहीं प्रत्युत किसी संप्रदाय, आम्नाय या शाखा के गुरुओं की कई पीढ़ियों द्वारा निर्मित हुए हैं। ऐसे ग्रंथों में प्रायः समान वृत्त, पाठ, प्रकरण आदि मिलते हैं जो संपादन में पर्याप्त सहायता देते हैं। महाभारत (पर्व १, ६२-) में आया हुआ शकुंतलोपाख्यान पद्मपुराण में भी मिलता है । पुराणों में आए हुए समान प्रकरणों को किर्फल (Kirfel) ने 'डास पुराणं पंच लक्षणं में संगृहीत किया है । किसी ग्रंथकार के अन्य ग्रंथ
नीचे उद्धृत किए गए संदर्भ से यह स्पष्ट हो जाए गा कि किसी रचना के संपादन में उसी थकार के अन्य ग्रंथों का पर्यवलोकन कैसे सहायता देता है।
" गोस्वामी (तुलसीदास) जी की वाणी का तथ्य जितना उन्हीं के ग्रंथों द्वारा समझा जा सकता है उतना और किसी प्रकार से नहीं। किसी भी शब्द, वाक्य या भाव का गोस्वामी जी ने ऐकान्तिक प्रयोग नहीं किया है। किसी न किसी दूसरे स्थान से उस की पुष्टि, उस का समर्थन और स्पष्टीकरण अवश्य होता है । यदि ध्यानपूर्वक मिलान किया जाय तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने सभी प्रकरणों का उपक्रम और उपसंहार बड़ी ही सुंदरता से किया है। एक प्रकार के वस्तुवर्णन में भिन्न भिन्न स्थलों पर शब्दों की कुछ ऐसी समानता रख दी है कि जिन पर दृष्टि न रखने से लोग भटक जाते हैं । कहीं कहीं तो एक ग्रंथ का भाव दूसरे ग्रंथ की सहायता से अधिक स्पष्ट होता है। उदाहरण के लिए नीचे रामचरितमानस के कुछ स्थल दिए जाते हैं जहां मिलान न करने के कारण लोगों को धोखा हुआ है और पाठ में गड़बड़ी की गई है। (१) सकइ उठाइ सरासर मेरु । सोउ तेहि सभा गएउ करि फेरु ।
१।२९१ । ७ सर+असुर बाणासुर-इस अर्थ को न समझ कर बहुत लोगों ने 'सुरासुर' पाठ कर दिया है । यदि निम्नलिखित अवतरणों पर ध्यान दिया गया होता तो 'सरासुर' ऐसा सुंदर आलंकारिक शब्द न बदला जाता।
रावन बान महा भट भारे । देखि सरासन गवहिं सिधारे । जिन के कछु बिचार मन माहीं । चाप समीप महोप न जाहीं।
१। २४६ । २
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