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प्रतिलिपियां करने वाले विशेष व्यक्ति हुआ करते थे । पुस्तकें लिखना ही इनकी आजीविका थी । विक्रम के पूर्व चौथी शताब्दी में इनको 'लिपिकर', 'लिपिकार' या, 'लिविकर' कहते थे । विक्रम की सातवीं और आठवीं शताब्दियों में इन को 'दिविरपति' ( फ़ारसी ' दबीर ' ) कहते थे । ग्यारहवीं शताब्दी से लिपिकारों को ' कायस्थ भी कहने लगे जो आज भारत में एक जाति विशेष का नाम है। शिलालेखों और ताम्र-पत्रों को उत्कीर्ण करने वालों को करण (क), करणिन, शासनिक, धर्म लेखिन कहते थे । जैन भिक्षुओं और यतियों ने जैन तथा जैनेतर साहित्य को लिपिबद्ध करने में बहुत परिश्रम किया। भारतीय लौकिक साहित्य का बृहत् भाग जैन लिपिकारों द्वारा लिपिकृत मिलता है। इस लिए भारतीय साहित्य के सर्जन, रक्षण और प्रचार में जैनों का स्थान बहुत ऊंचा है । विद्यार्थी अपनी अपनी प्रतियां भी बनाया करते थे, जिनका आदर्श प्रायः गुरु की प्रति होती थी ।
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लिपिकार प्रायः दो प्रकार के होते थे, एक तो वह जो स्वयं रचयिता की, या उसके किसी विद्वान प्रतिनिधि की, या किसी विद्या-प्रेमी राजा आदि द्वारा नियुक्त विद्वानों की देख रेख में काम करते थे । इन लिपिकारों द्वारा की हुई प्रतियों में पाठ की पर्याप्त शुद्धि होती है । रचयिता की अपेक्षा अन्य विद्वानों के निरीक्षण में की गई प्रतियों में दोष होने की संभावना अधिक होती है। दूसरे लिपिकार वह होते थे जो किसी विद्वान् के निरीक्षण में तो पुस्तकों को लिपि नहीं करते थे पर अपनी आजीविका कमाने के लिए दूसरों के निमित्त प्रतियां बनाते रहते थे । जैसे जैसे किसी मनुष्य को किसी रचना की आवश्यकता पड़ी, उसने किसी लिपिकार को कहा और उसने प्रस्तुत रचना की लिपि कर दी । यह लिपिकार प्रायः कम पढ़े होते थे । अतः इनकी लिखी हुई प्रतियों में दोष अधिक होते हैं। कुछ मनुष्य अपनी मनः संतुष्टि और निजी प्रयोग के लिए भी पुस्तकों की लिपियां बनाते थे ।
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