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( ३ ) संभवत: वह लोग वृक्षों के पत्र, छाल या लकड़ी, वस्त्र, चर्म आदि पर लिखते होंगे । अत: समय के साथ साथ लेख भी नष्ट होते गए' ।
प्राचीन भारतीय साहित्य में कई ऐसे स्थल हैं जिन में लेखन - कला का स्पष्ट उल्लेख है, और बहुत से ऐसे हैं जिनके आधार पर तत्तत्काल में इस कला के अस्तित्व का अनुमान किया जा सकता है । पाश्चात्य लेखक भी लिखते हैं कि स्त्रीष्ट से ४०० वर्ष पूर्व भारतीयों को लेखन कला का ज्ञान था और वह अपनी दिनचर्या में इसका प्रयोग करते थे । चंद्रगुप्त मौर्य के समकालीन यवन लेखक निअर्कस ने तो यहां तक लिखा है कि हिंदुस्तान के लोग रूई को कूटकर लिखने के लिए काराज़ बनाते हैं । इसलिए हम निश्चय से कह सकते हैं कि पाश्चात्य देशों के समान भारत में भी लेखन कला का ज्ञान और प्रयोग बहुत प्राचीन है ।
फिर भी भारत में बहुत पुरानी हस्तलिखित पुस्तकों का अभाव है । इस के कारण निम्नलिखित हैं।
(१) स्मरण शक्ति का प्रयोग और लिखित पुस्तकों का अनादरहमारे पूर्वज पठन-पाठन में स्मरण शक्ति का प्रयोग बहुत करते थे । यज्ञ में वेदमंत्रों का शुद्ध प्रयोग आवश्यक था। इन में स्वर और वणं की अशुद्धि यजमान का नाश कर सकती थी । अतः इन का शुद्ध उच्चारण गुरु-मुख से ही सीखा जाता था । इसलिए वैदिक लोग न केवल मंत्रों को, वरन् उन के पदपाठ को, दो दो पद मिलाकर क्रम पाठ को और इसी तरह पदों के उलट-फेर से घन, जटा आदि पाठों को भी स्वरसहित कंठस्थ करते थे । गुरु अपने शिष्यों को मंत्र का एक एक अंश सुनाता और वह उन्हें ज्यों का त्यों रट लेते थे । स्वर आदि की मर्यादा नष्ट न होने पाए, 'इसलिए लिखित पुस्तकों से वेद पाठ का निषेध किया गया । परंतु वेद लिपिकृत अवश्य किए जाते थे । वेद के पठन-पाठन में लिखित पुस्तक का अनादर एक १. मार्शल - महिंजोदड़ो, पृ० ३५ ।
२. लिपिमाला, १०४-१५ ।
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३. लिपिमाला, पृ० १४४ ।
४. यथैवान्याय विज्ञाता द्वेदाल्लेख्यादिपूर्वकम् ।
शूद्रेणाधिगताद्वापि धर्मज्ञानं न संमतम् ॥ (कुमारिल का तंत्रवार्त्तिक, जैमिनि-मीमांसा दर्शन के अ० १, पाद: ३, अधिकरण ३, सूत्र ७ पर, पृ० २०३)
५. वेदविक्रयिणश्चैव वेदानां चैव दूषकाः ।
वेदानां लेखकाश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥
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( महाभारत, अनुशासन पर्व, ६३ । २८)
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