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प्राचीन रीति हो गई और उनी की देखा-देखी और शास्त्र भी हां तक हो सके कंठस्थ किए जाने लगे। यहां तक कि आज भी वेद लोगों को कंठस्थ हैं। और भारतीय लोग कंठस्था विद्या को ही विद्या मानने लगे । गीता में आत्मा के विषय में लिखा है
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ ( २, २३) यह उक्ति इस कंठस्था विद्या के लिए पूरी तरह लागू होती है । हिंदुओं की परिपाटी शताब्दियों तक यही रही है कि मस्तिष्क और स्मृति ही पुस्तकालय का काम दें। वह कहते हैं कि पुस्तकों से विद्या लेने वाला पुरुष कभी विद्वत्सभा में चमक नहीं सकता। इसी लिए सूत्र ग्रंथों की संक्षेप शैली से रचना हुई । इपी लिए ज्योतिष, वैद्यक, अंकगणित, बीजगणित आदि वैज्ञानिक विषयों के ग्रंथ भी बहुधा श्लोकबद्ध लिखे जाने लगे। और तो और कोश नैसे ग्रंथ भी छंदोबद्ध लिखे गए ताकि शीव कंठस्थ हो सकें।
२-लेखन-सामग्री की नश्वरता-प्राचीन काल में जिस सामग्री पर पुस्तकें लिखते थे, वह सब चिरस्थायी न होगी, और समय के व्यतीत होने के साथ साथ लिपिबद्ध पुस्तकें भी नष्ट भ्रष्ट होती गई।
३-भारत में यह परिपाटी है कि लिखित पुस्तकें जब काम की न रहें तब वह गंगा आदि पवित्र नदियों की भेंट कर दी जाती हैं।
४-राज-विसव आदि के कारण भी बहुत सी लिखित पुस्तकों का नाश हुआ है।
साहित्यक्षेत्र में लेखन ने स्मरण शक्ति का स्थान शनैः शनैः लिया होगा। परंतु कब लिया-इस बाप्त का निर्णय कठिन है । जैन और बौद्ध साहित्य में निश्चयपूर्वक बतलाया गया है कि किस किस समय उनका धार्मिक साहित्य लिपिवद्ध किया गया । जैनों ने जब देखा कि हमारा आगमिक साहित्य नष्ट नष्ट होता जा रहा है तो उन्होंने समय समय पर कई विद्वत्परिषदें पाटलिपुत्र (विक्रम से पूर्व चौथी शताब्दी में ) मथुरा, वलभी आदि स्थानों में की । वलभी को परिषद् विक्रम की छठी शताब्दी में हुई और इस में सब आगमों को लिपिबद्ध किया गया । बौद्ध साहित्य की संभाल के लिए भी कई सभाएं हुई-अशोके के समय
१. पुस्तकप्रत्ययाधीतं नाधीतं गुरुसंनिधौ ।
भ्रानने न सभामध्ये जारगर्भ इव स्त्रियाः ॥ की माधवीय टीका ( पराशर धर्म संहिता ( १, ३८) भाग १, पृ० १५४ ) में उद्धृत नारद का वचन ।
२. काणे स्मारक ग्रंथ ( अंग्रेजी ) पृ० ७५ ।
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