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दिए गए। यह नाम वनस्पति से संबंध रखते हैं । पत्र और पन्ना ( = सं० पर्ण ) भी वृक्षों के पत्तों के ही स्मारक हैं ।
आज यह रचनाएं हमें हस्तलिखित प्रतिलिपियों के रूप में प्राप्त होती हैं । हमें खेद से कहना पड़ता है कि भारत में अति प्राचीन प्रतियों का प्रायः श्रभाव है । सिंधु सभ्यता के ज्ञान से पहले अजमेर जिले के 'वड़ली' ग्राम से प्राप्त जैन शिलालेख, 'पिप्रावा' से उपलब्ध बौद्ध लेख', और अनेक स्थानों पर विद्यमान, महाराज अशोक की शिलोत्कीर्ण धर्म लिपियां ही प्राचीनतम लेख माने जाते थे । और कोई भी पुस्तक विक्रम से पूर्व लिपिकृत प्राप्त नहीं हुई। प्राचीन लेखों के अभाव का कारण ब्यूलर आदि कई पाश्चात्य विद्वानों के कथनानुसार यह था कि उस काल में भारतीय लेखनकला से अनभिज्ञ थे । उन का मत है कि भारत की पुरानी लिपियां - ब्राह्मो और खरोष्ठी - प्राचीन पाश्चात्य लिपियों से निकली हैं । परंतु हड़प्पा, महिंजोदड़ो आदि स्थानों पर खुदाई होने से निश्चित रूप से ज्ञात हो गया है कि भारतीय उस सभ्यता के समय लिपि का आविष्कार कर चुके थे और उन में लिखने का प्रचार काफ़ी था । यह लिपि चित्रात्मक है और प्राचीन काल की पाश्चात्य लिपियों से बहुत मिलती है । संभव है कि इस सभ्यता का मिश्र आदि देशों की तात्कालिक सभ्यता से घनिष्ठ संबंध और संपर्क हो । अतः यह निश्चित है कि जिस समय पाश्चात्य लोग लिपि का प्रयोग करते थे (यदि उस से पूर्व काल में नहीं तो) उस समय भारत में लिपि का प्रयोग अवश्य होता था ।
हिजोदड़ो और हड़प्पा से अभी तक कोई लम्बा लेख नहीं मिला परंतु कुछ लेखान्वित मुद्राएं और मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए हैं। खुदाई में थोड़े ताम्रपत्र और मिट्टी के कड़े भी हाथ लगे हैं, जिन पर अक्षर उत्कीर्ण किए हुए हैं । इन लेखों की लिपि को पढ़ने में अभी पूरी सफलता नहीं हुई। अब तक यहां से कुल ३६६ चित्रचिह्न मिले हैं। कुछ चिह्न समस्त रूप में हैं और कई चिह्नों का रूप मात्राओं के लगने से परिवर्तित हो गया है । १२ मात्राओं तक के समूह भी दृष्टिगोचर होते हैं । संभवत: यह उच्चारण-शास्त्र के अनुसार हैं। यह चिह्न दाएं से बाएं हाथ को लिखे जाते थे । इन चिह्नों की इतनी बड़ी संख्या से यह सूचित होता है कि वह लिपि वर्णात्मक न थी, अपितु अक्षरात्मक या भावात्मक थी । कम लेखों के मिलने से यह अनुमान हो सकता है कि उस समय की लेखन सामग्री चिरस्थायी न थी ।
१. ओझा - भारतीय प्राचीन लिपिमाता ( दूसरा सं० ), पृ० २-३ |... राधाकुमुद मुकरजी - हिंदू सिविलाइज़ेशन, पृ० १८-१६ ।
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