Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 22
________________ लिखी गई हों । इन प्रतियों का परिचय प्राप्त करने के लिए सूचियों का प्रयोग करना पड़ता है । सूची-साहित्य बृहत्काय हो गया है। कई विवरणात्मक सूचियां छप चुकी हैं और अब भी छप रही हैं। सब से प्राचीन सूची काशी के पंडित कवींद्राचार्य (वि० सं० १७१३) की है। परंपरा की अपेक्षा प्रतिएं कई प्रकार की हैं मूलपति-जैसा कि पहले बत नाया गया है मूलप्रति उस प्रति को कहते हैं जिस को ग्रंथकार ने स्वयं लिपिबद्ध किया हो या अपने निरीक्षण में किसी से लिपिबद्ध करवा कर स्वयं शुद्ध कर लिया हो । प्राचीन मूलप्रतियों में पाठ की अशुद्धियां हो जाती होंगी क्योंकि हम देखते हैं कि आधुनिक लेखों की मूलप्रतियों में भी छोटी मोटी अशुद्धियां हो जाती हैं। प्राचीन अथवा अर्वाचीन मूल प्रतियों का संपादक इन्हीं को शोधता है। प्रथम प्रति-प्रथम प्रति वह प्रति होती है जो किसी कृति की मूलप्रति से तय्यार की जाए, जैसे शिलालेख, ताम्रपत्र आदि । यदि किसी मूल प्रति से कई प्रतियां की जावें तो वह सभी प्रथम प्रतियां ही कहलावेंगी । पुस्तकों की भी प्रथम प्रतियां मिलती हैं । उत्कीर्ण लेखों और पाषाण आदि पर खुदे हुए काध्य आदि की रक्षा का यदि उचित प्रबंध न हो तो वह टूट फूट जाते हैं । ऋतुओं के विरोधी आघातों को सहते सहते वह घिस कर मद्धम पड़ जाते हैं। और उन को खोदते समय करणक भी थोड़ी बहुत अशुद्धियां कर ही जाता है । इन त्रुटित अंशों को पूरा करना और अशुद्धियों को सुधारना संपादक का कार्यक्षेत्र है। प्रतिलिपि-भारत में मूल और प्रथम प्रतिएं बहुत ही कम संख्या में उपलब्ध होती हैं । संपादकों को प्रायः मूल अथवा प्रथम प्रति को प्रतिलिपियां या इन प्रतिलिपियों की प्रतिलिपियां ही मिलती हैं जिन के आधार पर इन्हें रचना का मौलिक या प्राचीनतम रूप प्राप्त करना पड़ता है। । प्रतियां आधुनिक काल की तरह मुद्रण-यंत्रों से नहीं बनती थीं । इन को मनुष्य अपने हाथों से तय्यार करते थे। जिस प्रति को देख कर कोई प्रतिलिपि की जाती है, उसे उस प्रतिलिपि का 'आदर्श' कहते हैं । प्रतिलिपि कभी भी अपने आदर्श के बिलकुल समान नहीं हो सकती, इस में अवश्य कुछ न कुछ अंतर पड़ जाता था। इस में थोड़ी बहुत अशुद्धियां आ ही जाती थीं । इसलिए प्रतिलिपि अपने आदर्श से सदा कम विश्वसनीय होती है । एक प्रति से अनेक प्रतियां और इन से फिर और प्रतियां तय्यार होती रहती थीं। इस प्रकार ज्यों ज्यों प्रतिलिपि मूल या प्रथम प्रति से दूर Aho ! Shrutgyanam

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