Book Title: Bharatiya Sampadan Shastra
Author(s): Mulraj Jain
Publisher: Jain Vidya Bhavan

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Page 18
________________ में पाटलिपुत्र में, कनिष्क के समय में काश्मीर में कुंडलवन में। काश्मीर वाली सभा के वर्णन में यह आता है कि सफल सिद्धांत को ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण करके एक स्तूप में रख दिया ताकि नष्ट न होने पाए। परंतु हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि यह सिद्धांत लिपिबद्ध थे या स्मृति द्वारा ही उन तक पहुंचे थे । ब्राह्मण साहित्य में कोई ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिसके आधार पर हम यह कह सकें कि ब्राह्मणों ने अपने धार्मिक साहित्य को लिपिबद्ध करना कब आरंभ किया। एक या अनेक कर्ता की अपेक्षा से भारतीय साहित्य दो श्रेणियों में विभक्त हो सकता है। १-समष्टि-रचित साहित्य-भारत का कुछ प्राचीन साहित्य ऐसा है जिसके सर्जन में किसी व्यक्ति विशेष का हाथ न होकर किसी संप्रदाय का हाथ होता था। सारा ऋग्वेद किसी एक ऋषि को दिखलाई नहीं दिया (या किसी एक कवि की कृति नहीं), किंतु कई ऋषियों को दिखाई दिया। वेद में जितने मंत्र किसी एक ऋषि के नाम के साथ आते हैं वह सब उसी एक ऋषि द्वारा नहीं अपितु उस ऋषि तथा उसकी शिष्य परम्परा द्वारा देखे या बनाए होते हैं। वेदादि धार्मिक साहित्य में शुद्धता वांछित थी इसलिए इस की रक्षा के लिए पद, क्रम, घन, जटा आदि पाठों को प्रयोग में लाया गया । इस के परिणाम-स्वरूप स्मृतिपट से लिपिपट पर आते समय वैदिक साहित्य में अशुद्धियां कम हुई और पाठ शुद्ध रूप से चला आया है। परंतु निन रचनाओं के साथ धार्मिकता एवं पवित्रता का इतना घनिष्ठ संबंध नहीं, उन में शुद्धता पूर्ण रूप से नहीं मिलती, जैसे महाभारत, पुराण आदि । भिन्न भिन्न विद्या केंद्रों पर इन की स्थानीय धागएं बन गई । प्राय: देखा जाता है कि ऐसा साहित्य पहले स्मरणसक्ति द्वारा ही प्रचलित होता था और कुछ काल पीछे लिपिबद्ध किया जाता था। इस अंतर में इस में कुछ न कुछ परिवर्तन आ जाता था क्योंकि कई वाचकों और पंडितों ने अपनी बुद्धि का प्रभाव इस पर डाला होगा। इस साहित्य के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक प्रति में मूलपाठ मिलता है या मिलता था । हम केवल इतना कह सकते हैं कि वह रचना अमुक प्रति में प्रथम बार लिपिबद्ध की गई। २-व्यक्ति-रचित साहित्य-इस साहित्य के विषय में यह संभावना प्रबल होती है कि रचयिता ने अपनी कृति को या तो स्वयं लिपिबद्ध किया हो या अपने निरीक्षण में किसी से लिखवा कर स्वयं शुद्ध कर लिया हो । ग्रंथकार की स्वयं लिखी हुई या लिखाई हुई इस प्रति को मूल प्रति कहते हैं । इस साहित्य में मूल रचना Aho ! Shrutgyanam

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