Book Title: Bhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 17
________________ (XIV) दो शब्द तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा प्रबर्तित धर्म-दर्शन संकुचित नहीं होता। लेकिन उसका अर्थ समझने और ग्रहण करने की हमारी सीमाएं अवश्य होती हैं। जैन धर्म में ६३ 'शलाका पुरुषों' का वर्णन आता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामक प्रत्येक काल खंड में ये 'शलाका पुरुष' जन्म लेकर समाज को धर्म और नीति की प्रेरणा देते हैं। इन शलाका पुरुषों में २४ तीर्थंकरों का स्थान सबसे ऊपर है। प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव पिता नाभि राजा तथा माता मरुदेवी के पुत्र थे। अंतिम २४ वें तीर्थंकर महावीर थे जो आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व हुए। यों देखा जाए तो काल की अविच्छिन्न धारा में न तो ऋषभ देव प्रथम हैं और न महावीर अंतिम यह परंपरा वस्तन अनादि-अनन्त है। न जाने कितनी चौबीसयां हो चुकी है। और कितनी आगे होने वाली है। तीर्थंकर महावीर के जन्मस्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद है । पडित हीरालाल जी दूगड़ जैन की यह खोजपूर्ण कृति लेखक की वर्षो की मेहनत, अध्ययन और खोज का परिणाम है । १० वर्ष पूर्व प्रकाशित उनके बृहद् ग्रंथ "मध्य एशिया और पजाब में जैन धर्म" का सर्वत्र स्वागत हुआ था। देश-विदेश मे उसकी माग है। जैन विद्या मर्मज्ञता के धनी पंडित जी की प्रत्येक कृति अपने विषय की महत्वपूर्ण सामग्री से सपन्न होती है। वे जो कछ लिखते है, उससे साधारण पाठक की धार्मिक निष्ठाए तो पष्ट होती ही है विद्वत समाज भी उनकी तकं शैली, खोजपूर्ण दृष्टि और निष्पक्ष मान्यताओं से लाभान्वित होता है। जैन समाज के इस वयोवृद्ध मूर्धन्य लेखक की स्वस्थ दीघांय के लिए हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। श्री दिनकरभाई (गुजराती) श्री दग्गड जी को ग्रथके शोधखोजपूर्वक तैयार करने में खर्च की पूर्ति के लिए रुपया २५०० की राशि प्रदान करने की उदारता करके उनपर खर्चे के बोझ को हल्का करके एक आदर्श काम किया है। इसलिये वे धन्यवाद के पात्र है। . इस पुस्तक के प्रकाशन मे आत्म-वल्लभ समुद्र पाट परपरा के वर्तमान पक्षधर आचार्य प्रवर परमार क्षत्रियोद्धारक, गच्छाधिपति श्रीमद् विजयेन्द्र दिन्न सुरीश्वर जी म. सा. की प्रेरणा से रुपया दमहजार की राशि श्री आत्मवल्लभ शिक्षण निधि ने प्रदान की है तथा जो अन्य महानुभाव और संस्थाए सहयोगी बनी है उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करना हमारा परम कर्तव्य है। आचार्य श्री जी के चरणों में कोटिशः बन्दन । अन्त में, पुस्तक के मुद्रण और प्रकाशन में कोई त्रुटि रह गई हो तो सहृदय पाठक उसके लिए क्षमा करेंगे, ऐसी आशा है। दिल्ली पौष पूर्णिमा, २१ जनवरी १९८९ वीरेन्द्र कुमार जैन

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