Book Title: Bhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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क्षत्रियकंड
भगवान महावीर के पारमार्थिक सिद्धान्तों की गरिमा
सिद्धार्थ महीपति के कुमार स्वनामधन्य सर्वसत्वक्षेमंकर श्री वर्धमान-महावीर जो वास्तव में ही प्राणीमात्र के लिये वंदनीय, पजनीय और परमोपकारी महापुरुष थे। उनके विश्व शांतिमय साम्राज्य को अक्षुण्ण धारावाही बनाने वाले परमार्थी सिद्धांतों को आचरण में लाना कोई साधारण बात नहीं है। इसलिए स्वार्थपरायन प्रजा उन के सिद्धान्तों को परिपूर्ण पालन करने में जैसे-जैसे शिथिल बनती गयी वैसे-वैसे उन महान सिद्धान्तोपासकों की संख्या करोड़ों से कम होती हुई लाखों में रह गयीं। जो बहमती थी वह अल्पमती के रूप में एक मंप्रदाय के नाम से संबोधित होने लगी। पर असल में देखा जाय तो उनके सिद्धांत सांप्रदायिक नहीं थे। परन्तु सबके श्रेय के लिये सार्वभौमिक थे। भले ही लोग उन्हें एक धार्मिक संप्रदाय के प्रवर्तक मानें परन्तु इतिहास और विज्ञान तो आज भी विश्वकल्याण कारक विश्वगरु के स्थान पर अधिष्ठित रखते हैं। क्योंकि चाहे आज या कल जब कभी भी संसार सख-शांति के समीप पहंचना चाहेगा तब उसे उन्हीं के पवित्र सिद्धान्तों को हृदय से स्वीकार करना पडेगा। जितने भी दमरे प्रयत्न हैं वे सारे निष्फल और निरर्थक बनेंगे। भले ही उनमें किम्पयाक वृक्ष के विष फल समान णिक शाति का अनभव होता हो किन्त वह केवल मग-तृष्णा है और बिच्छ को द्वार बाहर करने के प्रयास में मर्प को प्रवेश कराना है।
__ आज के आनिक जगत के महान विचारक महात्मा गांधी, डा. टेगोर और बनार्डशा आदि को भी इसी निर्णय पर आना पड़ा है और कहना पडा है कि मत्ता का नाश सत्ता से हो जाता है ऐमा नहीं है। अर्थात सत्ता से शांति नहीं मिलती। ममता का अर्थ है वासनाओं से विरक्त होना-कषायों मे विरक्त होना
और विषयो में विमख होना। इमी समता को महावीर ने अपनी भाषा में मामायिक कहा है तथा उदघोषण पर्वक उन्होंने बतलाया है कि सामायिक से ही मवं सख-शाति शाश्वत रूप से निर्मित हो सकती है। आज के राष्ट्र सूत्रधारों को भी ध्यान मे रखना है कि little the want happier you are यानी जितने-जितने प्रमाण मे तृष्णा कम उतने- उतने प्रमाण में विशेष मुख है। परन्त प्रभ का "संजोग मूल जीवेन पत्ता दक्ख परम्परा।" यह संदेश तो विश्व में उन दिनों भी पहच गया था कि "जे जे निरुपाधिपण ते ते अंशे धर्म" इसलिए "मूर्ख परिग्रह":- Attachment मे मख नहीं है। परन्त Durachment in attachment यानि अनासक्ति में आसक्ति मानने में आनन्द है और योग्यता की अधिकार भमि पर उसी सामायिक के दो विभाग किये गये है। एक है मवं-विर्गत अर्थात् सम्पूर्ण-दसग है देवर्गत अर्थात मयादित। मवं-विति का अर्थ है कि