Book Title: Bhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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- ८१.
सत्रियकंड
आदि मोहवश दःखी न हों ताकि अपना और दूसरों का अनिष्ट न हो जाय। इस काल में भी अनेक श्रमण-थर्माणयां ऐसे हैं जो दीक्षा लेने के बाद कभी भी अपने जन्मस्थान नहीं गये। जैसे-मुनि श्री बुद्धिविजय (बूटेराय) जी के शिष्य १. मक्तिविजय (मलचन्द) जी २. वृद्धिविजय (वृद्धिचंद) जी ३. आत्माराम (श्री विजयानन्द मार) जी। आचार्य श्री विजयवल्लभ सरि जी के शिष्य (४) आचार्य श्री विजयालत मरि (५) आचार्य विजय-उमंय सरि आदि (ये सब पंजाबी मनिगज थे) क्या ऐमा मानना उचित है कि वे अपने जन्मस्थान कभी नहीं गये इलिये वे उनके जन्मस्थान नहीं हैं। ऐमा मान लेना भ्रम नहीं तो और क्या है? अनः र्याद भगवान महावीर ने अपने जन्मस्थान क्षत्रियकंड में चौमासा नहीं किया हो अथवा न भी आये हों तो लच्छआड़ के निकट क्षत्रियकंड को उनका जन्मस्थान न मानना नकमंगत नहीं है।
__ गंगा पार विहार भगवान महावीर ने 60 वर्ष दीक्षित अवस्था में लम्बे लम्बे विहार भी किये थे। अनेक नगगें, ग्रामों, मन्निवेशों, जनपदों, नदियों, जंगलों में विहार किया था। चम्पा (अग जनपद) वीतभयपत्तन (मिन्धु-सौवीर जनपद), काश्मीर, हम्निनापर (कमक्षेत्र जनपद), मगध, विदेह, वंग, गढ़, गंधार, आदि जनपदों में विचरे थे। वे से उग्र विहारी थे, यह वात आगमों से स्पष्ट ज्ञात हो जाती है। गम्ते में अनेकानेक नदियों, नालों, पर्वतों, घाटियों आदि को पार करना पड़ा हागा। बीहड़ जंगलों में होकर जाना पड़ा होगा। प्रभु को कहां कहां से होकर गजग्ना पड़ा होगा इमका कोई लेखा-जोखा शास्त्र में नहीं मिलता तो इससे ऐसा मान लेना कि यह विवरण शास्त्रों में न होने से कोई नदी-नाला पार नहीं किया होगा? इस बात का कोई सामान्य-अकल (बद्धि) वाला भी नकार नहीं सकता कि अनेकानेक नदी नाले अनेक घार इनविहारों में प्रभ को पार करने पड़े थे। शास्त्र में तो जहां-जहां विशेष घटनाएं घटी थीं मात्र उस स्थान पर नदी आदि को लांघने का उल्लेख किया है। वह भी अतिसंक्षेप में, शेष का उल्लेख नहीं किया
गया।
भगवान महावीर के विहार क्रमका विवरण इस प्रकार है-क्षत्रियकंड के बाहर ज्ञातखंडवन उद्यान में दीक्षा ली, पश्चात् कुमारग्राम में पहला रात्रि निवाम, ग्वाले का उपसर्ग, कोल्लाग सन्निवेश में बहलबास्मण के घर छठ तप का पारणा, आधा वस्त्र दान, मोराक सन्निवेश के कुलपति की विनती, आठ मास तक विहार, मोराक में पुनः आगमन, अस्थिग्राम में पहला चौमाता। यहां शूलपाणि याका उपसर्ग, मोराक सन्निवेश में तप का पारणा, दक्षिण बाचाला