Book Title: Bhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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काकदी ही रूप है। यथा- काकन्दी, कागंदी और काइदी कल्पसूत्र की स्थविरावलि में जैन श्रमणों के गणों शाखाओं और कुलों की विस्तृत सूचि मिलती हैं। जिसके अनुसार काकंदीय शाखा का संबन्ध यहीं से ज्ञात होता है 'विक्रम संवत्' १४८९ में जिनवर्धन सूरि चतुर्विध संघ के साथ यहां यात्रा करने आये थे । पावापुरी, नालंदा, कुडंग्राम और काकंदी आदि जैनतीर्थों की यात्रा करने का उन्होंने उल्लेख किया है। इससे भी सिद्ध है कि कुंडग्राम और काकंदी समीप में अवस्थित थे। हाल में ही उक्त मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ है। मंदिर के आसपास प्राचीन भवनों के प्रस्तर, ईंटों, मिट्टी के बर्तनों के थोड़े बहुत अवशेष बिखरे पड़े हैं। भूमि की खुदाई से जो ईंटे मिली हैं वे १६ x ११x ३ की हैं। उपर्युक्त भव्य विशाल जैनमंदिर में तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति और नौवें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथ के चरणबिंब हैं। उनपर लेख भी अंकित हैं जो वि. सं. १५०४ के हैं। इस स्थान की पुष्टि तब और हो जाती है जब लच्छु आड़गांव से तीन मील की दूरी पर लोहड़ाग्राम को देखते हैं। उस समय यह भी राजा जितशत्रु के अधिकार में था। प्राचीन लोहर्गला और आज का लोहडा अपनी प्राचीनता को प्रकट करता है।
१. जैनसूत्रों से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर बहुशालचैत्य उद्यान में कई बार पधारे थे। आज भी यह स्थान औषधियों का भंडार है और शालवृक्षों की बहुलता भी है। आज भी जो बहुशालचैत्य नाम को सार्थक करती है।
२. इस क्षेत्र में आमिलिकी (आवला) वृक्षों का आज भी आधिक्य है। यहां वाल्यकाल में राजकुमार वर्धमान महावीर अपने बाल मित्रों के साथ खेलने आते थे। जो जैनशास्त्रों में आमलिकी क्रीड़ा के नाम से प्रसिद्ध है। शाल, आंवला, अर्जुन, पलाश, आदि के वृक्ष पहाड़ी भाग में ही पैदा होते हैं। मैदानी इलाके में पैदा नहीं होते। यह भी ध्यानीय है कि शास्त्र में क्षत्रियकुंडनगर से बहशालचैत्य उद्यान तक के वर्णन में जितने प्रकार के वृक्षों के वर्णन आए हैं वे सब पहाडी भाग में ही पैदा होते हैं।
३. यद्यपि आज यहां के स्थानीय लोग बहुशालचैत्य उद्यान और ब्राह्मणकुंडग्राम को भूल चुके हैं। ये लोग आज इसे कुंडघाट कहते हैं। क्योंकि आज यहां प्राचीन विशाल कुंड पर्वतश्रेणी की तलहटी में उस स्थान की सुंदरता मे चारचांद लगा रहा है। इसके बीच में एक बरसाती नदी बहती है जिसे लोग बहवार कहते हैं । बहुंशालचैत्य उद्यान के पास इस नदी के किनारे के भाग निरीक्षण करने से काफी दूर तक ऐसा प्रतीत होता है कि अतिप्राचीन काल में कोई मजबूत दीवार रही होगी। क्योंकि विचित्र गारे के मसाले से बना हुआ किनारे का भाग सुदृढ़ प्रतीत होता है।