Book Title: Bhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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क्षत्रियकड
अधिकाधिक अध्ययन करते गये उतनें उतने प्रमाण में उनकी मात्यता भी इस विषय में दृढ़ होती गई। इस विषय में विशेष न कह कर सिर्फ डा.G.W. मेलर का अभिप्राय दर्शाता हूँ
“The therem is usually considered the flower of the Machanical world the hightest and most genral theorem of Natural Science to which the thought of many centuries has led." उनके कहने का आशय यह है कि इस विश्व के सकल पदार्थ "अत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक हैं। आज तो पश्चिमात्य विचारकों का भी स्पष्ट कहना है कि "Science recognised no authority other than Nature विज्ञान विधि से विशेष किसी को प्रमाण नहीं मानता। इस लिये बुद्धिवाद के युग में प्रकृति से विशेष वैज्ञानिक प्रमाण क्या बतावें।
जैन शास्त्रों में तो स्पष्ट उल्लेख है कि अनादिकाल से तीर्थंकर भगवन्तों ने अखिल ब्रह्माण्ड और ज्ञान का बीज 'उत्पाद-व्यय-धौव्य' इस त्रिपदी रूप ही प्रकाशित किया है और भगवान महावीर जब सर्वज्ञ (Omnicient) पद पर पहंचे अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थकर बने तब उनके प्रधान शिष्य गणधर ने प्रश्न किया कि "भंते किं ततं किं ततं?" प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा"उत्पन्नइ का विगमेइ वा धुवेइ वा।" इस त्रिपदी द्वारा ही अपनी दिव्य ध्वनि का मंगलाचरण किया था। उन्होंने अपनी उत्पन्न सूक्ष्म दृष्टि से इस विश्व के म्वरूप का यथार्थ अवलोकन कर उपर्युक्त-सार्वभौमिक सत्य जगत के सामने प्रकाशित किया था। इस में किसी भी प्रकार से उसमें मत-कदाग्रह और दंभ नहीं था। यह उनकी वीतरागता का लक्षण था और तीर्थकर होने का प्रबल प्रमाण था। तात्पर्य यह है कि जैसा पदार्थ विज्ञान का स्वरूप है,वैसा ही प्रतिपादन किया। विचारक और वैज्ञानिकवर्ग अपनी मर्यादित मत्यानुसार संक्षेप अर्ष यह operate for "Permanence underlying change)", qift Taraf sport स्वभाव (Characteristic) में कायम (नित्यधौव्य) रहते हुए भी अनेक अवस्थाओं (पर्यायों-अत्पाद,व्ययों में परिवर्तित होता रहता है। वास्तव में तो इस महावाक्य का यथार्थ स्वरूप महाप्रभु के समान सर्वज्ञ पद पर पहुंचे तभी समझा जा सकता है। धर्म की व्याख्या करते हुए "वत्युसहाबोधम्मो" अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। इस एक छोटे से सूत्र में इतना गंभीर रहस्य भर दिया है। कि साधारण व्यक्ति इस की गंभीरता को समझने में असमर्थ हो जाता है। उन ध्यानवीर और ज्ञानगंभीर महानतत्वज्ञ प्रभु को हरेक सिद्धान्त अतिगहन,