Book Title: Bhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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(XXI)
शोधग्रंथ लिखने का मेरा निश्चय
सम्मेलन के बाद मैं दिल्ली लौट आया और चार ग्रंथ लिखने में व्यस्त हो गया, जो मैंने पहले ही हाथ में लिये हुए थे। १९८५ ई. में हाथ में लिया हुआ कार्य सम्पन्न हो गया। तबतक जन्मस्थान के विषय में दो एक लेख भी जैनेतर विद्वानों के पढ़ने को मिले। उनमें लगन थी, उत्साह था, वे इस क्षेत्र के निवासी भी थे। इसलिए उन्हें इस क्षेत्र का परिचय, जानकारी और अपनत्व भी विशेष था। उन्होंने बड़ी तत्परता और निष्ठा के साथ सत्यखोज के समर्थन में शोध किया था। पत्र-पत्रिकाओं में भी उनके इस विषय पर लेख प्रकाशित होते रहते हैं। यह बात प्रसन्नता की, प्रशंसनीय तथा अनुमोदनीय है
परन्तु इन लेखों में कुछ-न-कुछ त्रुटि रह जाना स्वाभाविक था । कारण यह है कि ये लोग जैनसाहित्य- कला और उसकी मान्यताओं से पूर्णरूप से जानकार नहीं हैं। ऐसा होनेपर भी उनकी सत्य-निष्ठा और लगन केलिए वे धन्यवाद के पात्र हैं । १. किसी ने अपने लेख में भगवान महावीर के जन्मप्रसंग को लेकर मेरुपर्वत की कल्पना क्षत्रियकुंड के पर्वत के साथ जोड़कर जन्माभिषेक होना यहीं पर लिख दिया । २. किसी ने इस क्षेत्र में जैनशासन के देव देवियों, यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियों पर नन्दीवर्धन के नाम से अंकित लेखों को पढ़कर उन मूर्त्तियों को जैनेतर इष्टदेवों की मानकर नन्दीवर्धन ( भगवान महावीर के बड़े भाई) को भगवान महावीर से दीक्षा लेने से पहले कर्मकाण्डी यज्ञवादी मान लिया। कारण यह है कि उन्हें यह ज्ञान ही नहीं है कि जैन भी शासन - देव-देवियों, यक्ष-यक्षिणियों को मानते हैं । आगमों में भगवान महावीर के पिता-माता से लेकर नन्दीवर्धन सहित सारे परिवार को (भगवान महावीर के दीक्षा केवलज्ञान से पहले) २३ वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का अनुयायी लिखा है। इसीलिए नन्दीवर्धन भी जन्म से ही जैनधर्मी था। पश्चात् यह सारा परिवार भगवान महावीर का अनुयायी बनकर पूर्ववत जैनधर्मी बना रहा। अतः नन्दीवर्धन को कर्मकांडी यज्ञवादी मानना एकदम भ्रांत है। इसलिए इन अवशेषों को जैन-जैनेतर शिल्पकला का जानकार कोई योग्य विशेषज्ञ - पुरातत्ववेत्ता ही परख सकता है। इससे अनभिज्ञ व्यक्ति नही ।
वास्तव में यदि ये लेख सिद्धार्थ - त्रिशला नन्दन- नन्दीवर्धन द्वारा ऑकन कराये ह हैं तो निश्चय ही ये जैन अवशेष हैं। इसमें सन्देह नहीं कि शोधकता अज्ञानतावश ऐसी भ्रांत बातें लिए बैठते हैं। जो आगे जा कर बहुत हानिकर सिद्ध होती है। अनेक संखलनाएं इनके लेखों में रह जाती हैं।
१९८४ ई. के मधुवन में इस इतिहासज्ञ विद्वत सम्मेलन के कर्णधार आचार्य श्री गुणसागर सूरि जी तथा उन के अन्तेवासी गणि श्री कलाप्रभसागर जी ने आगे चलकर इसकार्य की प्रगति केलिये क्या किया है यह मेरी जानकारी मे नहीं है। उन्हें चाहिये था कि किन्हीं योग्य इतिहासज्ञ विद्वानों से इससे संबंधित प्रामाणिक इतिहास क्षत्रियकड जन्मस्थान पर तैयार कराकर सर्वप्रथम सर्वभाषाओं में प्रकाशित करके सर्वत्र देश-विदेशों के विद्वानों को प्राप्त कराते। पर ऐसा हो नहीं पाया इस कमीको देखन ह मैंने स्वयं ही इसे लिखने का निश्चय कर यह शोधग्रंथ लिखा है। और इसकी पाडलिय गणि कलाप्रभसागर जी को प्रकाशित कराने के लिये हस्तांतरित कर दी थी और इम पढ़कर उन्होंने मुझे लिखा कि आप जैसे मूर्धन्य विद्वान ने ऐसा प्रामाणिक ग्रंथ लिखकर मेरी चिराभिलषित भावना को साकार किया है। अतः मैं आप का बहुत आभारी हूं। अब इसे शीध प्रकाशित कर दिया जावेगा।