Book Title: Bhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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(XXVII) हआ कि इस विषय में वैशाली के पक्षधरों से भी साक्षात करके उनके विचारों से भी अवगत हो लिया जाय ताकि भगवान महावीर के वैशाली के जन्मस्थान के विषय में उनके पास क्या-क्या प्रमाण या तर्क है।
१. श्वेतांबर तेरापंथ संप्रदाय के ख्यातनामा विद्वान डी. लिट मानद पदवीधारी मनि श्री नगराज जी कुछ वर्षों से दिल्ली में रह रहे हैं। मैंने उन्हें पत्र लिखकर उनके वैशाली के पक्ष की पष्टि केलिये उनके पास जो प्रमाण हैं उन्हें लिखकर भेजने को लिखा। उन्होंने अपने पत्र में इस विषय पर कछ न लिख कर मुझे साक्षात मिलने को लिखा। उनका पत्र मिलने पर मैं दूसरे दिन उनके पास गया। परस्पर परिचय के आदान-प्रदान के पश्चात् मैंने उनसे वैशाली के विषय में जानकारी देने को कहाउन्होंने कहा कि- "मेरी मान्यता भगवान महावीर के जन्मस्थान के विषय में वैशाली की है और इस मान्यता को प्रायः सभी ने मान भी लिया है तथा बिहारराज्य ने उस भृभाग को मान्यता देकर जन्मस्थान का वहां शिलापट्ट भी लगा दिया है।" ____ मैंने वैशाली पक्ष के विरोध में कुछ आगमिक, भौगोलिक, पुरातात्विक, ऐतिहासिक प्रमाण दिये तो वे झट बोल उठे कि "क्या आप अपने विचार मुझ पर ठोसने आये हैं। अच्छा अब मैं समझा।"
मैंने कहा कि-ऐसा नहीं। क्योकि मुझे इस विषय पर पुस्तक लिखनी है, आपने इस विषय पर गहन-गंभीर चिंतन-मनन भी किया होगा। इसलिये मै आपके पास जानकारी
लिये आया ह। उत्तर मिला कि- बस इस विषय में मेरा जो निर्णय है वह कह दिया है। इस के विषय मे मै और कुछ नहीं कहना चाहता। इतनी वार्तालाप के बाद मै वहा से चला आया।
२. पम्तक लिखने के बाद राजगृही में विगयतन संस्था के संस्थापक स्थानकवामी सप्रदाय के ख्यातनामा विद्वान मान कवि अमरचद जी उपाध्याय जो लगभग ४५ वर्षों से मेरे परिचित हैं, उन्हें मै ने पत्र लिखा कि- "मैंने भगवान महावीर के जन्मस्थान क्षत्रियकड पर शोधग्रंथ लिखा है। उसे मैं आपके पास संशोधन के लिए भेजना चाहता हु। यदि आप समय निकाल सके तो मैं आपको प्रेसकापी देखने केलिये भेज दें।
उनका उत्तर मिला- कि मेरी मान्यता भगवान महावीर के जन्मस्थान वैशाली की दृढ है। आपने जो शोधग्रथ लिखा है उसे मै वृद्धावस्था. अस्वस्थता एव दृष्टि के कम हो जाने के कारण न पढ़-सन पाऊंगा।
इस शोधग्रथ को लिखने में एकवर्ष लगा। बिना किसी की प्रेरणा तथा किमी प्रकार के सहयोग के यथासाधन, यथामति. यथाशक्ति, यथायोग्यता इमे लिखा है। तीर्थरक्षण, जिनशासन की भक्ति और श्रद्धा से निस्वार्थभाव से लिखने में द्वादशांगवाणी (गणि पिटकी) अधिष्ठत्री देवी और इष्टदेव के सहयोग और आशीवाद मे एवं परमकृपालू गुरुदेव स्व. श्री विजयानन्द सरीश्वर (आत्मारामजी) महाराज की परोक्ष प्रेरणा का सदा मंबल रहा है। अतः यह उन्हीं की महती कृपा का सुफल है। इस में गेरा कुछ नहीं है। ___८४ वर्ष की वृद्धावस्था, शरीर और इन्द्रियों की शिथिलता, आंखों की ज्योति की कमी, और इसी-वर्ष चारबार दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से ऐसा लगता है कि संभवतः अब अल्पायु शेष है। अपने जीवन के बड़े भाग ५५ वर्षों में ५० पुस्तकें लिखी हैं जो प्रकाशित हैं। १० पुस्तकें अप्रकाशित हैं इनके बाद ५१ वां पुष्प यह है और संभवतः यह