Book Title: Bhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 40
________________ क्षत्रियकड करने का प्रयत्न किया है। इस से स्पष्ट है कि तीर्थंकरों की परम्परा अत्यंत प्राचीन सिद्ध होती है उपर्युक्त नामावलि में महावीर जैनधर्म के २४वें तीर्थकर थे। किन्त जैन ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार न तो वे जैनधर्म के आदि प्रवर्तक थे और न सदैव केलिए अन्तिम तीर्थंकर थे। अनादिकाल से धर्म के तीर्थकर होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म में अपने अपने यगानमार विशेषताएं भी रहती हैं और उन के मौलिक स्वरूप में तालमेल भी रहता है। वर्तमान युग के आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ माने गये हैं। जिनका उल्लेख न मात्र जैनागमों में आता है परन्तु भारत के प्राचीन ग्रंथों जैसे ऋग्वेद आदि में भी नाना प्रसंगों में आया है। उन से लेकर महावीर आदि तीर्थकरों के चरित्र प्राचीन जैनागमों तथा दिगम्बर पुगणों में विधिवत आते हैं। धार्मिक, सैद्धान्तिक, दार्शनिक दष्टि से मानो उनमें एकरूपता तथा एक ही आत्मा की व्याप्ति प्रकट करने के लिये महावीर के पूर्व जन्म की परम्परा ऋषभदेव से जोड़ी गयी है। ऋषभदेव के पत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। यह बात समस्त वैदिक प्राणों में भी प्रायः एकमत से स्वीकार की गयी है। इन्हीं भरत के पत्र मरीचि भी पर्वजन्म से आये थे। जिस ने अपने दादा ऋषभदेव के चरणकमलों में मुनि दीक्षा ली थी। परन्तु उससे मनि व्रतों का पालन न हो सका। वह मान पद से भ्रष्ट हो गयातथापि उसमें धार्मिक बीज पड़ चका था और संस्कार भी उत्पन्न हो चुके थे। अतएव देव और मनुष्य आदि लोकों में जन्म लेकर भ्रमण करते हुए अन्ततः उस ने महावीर तीर्थंकर का जन्म धारण किया। इस प्रकार यह सहज ही देखा जा सकता है कि इस अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर की अध्यात्म परम्परा आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से जुड़ी हुई प्रतिष्ठित पायी जाती है। किन्तु महावीर के साथ भी तीर्थकर परम्परा टूटती नहीं। उन के एक गृहस्थ शिष्य थे। उस समय के मगध नरेश श्रेणिक बिंबसार। उन में भगवान महावीर द्वारा धर्म का बीज आरोपित किया गया। यद्यपि वह अपने पूर्वदुष्कृत्य के कारण नरकगामी हुआ तथापि उसमें भी मरीचि के समान धार्मिक संस्कार प्रबलता के साथ स्थापित हो चका था जिसके फलस्वरूप वह अगले जन्म में एक नये तीर्थकर परम्परा में आदि धर्मप्रवर्तक होंगे। यानि भावी चौबीस तीर्थकरों में पद्मनाभ नाम के प्रथम तीर्थकर होंगे। इस प्रकार समग्र दृष्टि से विचार किया जाये तो जैन परम्परा में यम्बात दृढ़ता से स्थापित की गई है कि जिस प्रकार परम्परा से महावीर ऐतिहासिक रूप से अन्तिम तीर्थकर हैं। उसी प्रकार वे नए तीर्थकर परम्परा के जन्मदाता भी हैं।

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