Book Title: Bhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 29
________________ Cxxiv) निःसंदेह पिछले कई दशक से भारतीय विद्वानों की सरस्वती साधना से ये अनेक मांत मान्यताएं खडित हुई हैं और क्विक्वीन बनसंधान की संभावनाएं बढ़ती चली जा रही हैं। इसी संदर्भ में १.श्री नरेशचंद्र मिश्रजन जिन्होंने वैशाली की मान्यता का विरोध करते हुए अनेक पत्र-पत्रिकाकों में लच्छुआड़ के निकट कंडग्राम को भगवान महावीर की जन्मभमि मानने के पक्ष में अपने तर्क दिये हैं। पन: बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर (मुंगेर) में इसी आशय के विवाद का उल्लेख करते हए ऐसी सूचना दी गई है Jainism has also hold in Mongher, Bihar is the Birth place of Mahaveera Swami the 24th Tirthankara, There arediti-rent theses to the Birth place of Mahaveera swami hold it was at Lachwar village in Jumui Subdivision, (Page 375 Edition 1966 A.D.) डा. श्यामाप्रसाद, डा. स्वामीरामरघुवीर, डा. भगवानदास केसरी, अजयकुमार सिन्हा, श्री भंवरलाल नाहटा (कलकत्ता) स्व. मुनि श्री दर्शनविजय जी (त्रिपुटी) आदि कईयों ने वैशाली की प्रांत मान्यता के निरसन के विषय में लिखा है और वे लिख रहे हैं। पर खेद है कि कई जैन-पत्र-पत्रिकाकार अभी भी भगवान महावीर के वैशाली जन्मस्थान के पक्ष में गीत गाये जा रहे हैं। कविताओं, भाषणों और पुस्तकों, लेखों में भी, स्कूलों कालेजों में भी यही पाठ पढ़ाये जा रहे हैं कि भगवान महावीर का जन्मस्थान वैशाली है। खेद है कि जैनसमाज की तरफ से ऐसा कोई प्रयत्न नहीं किया गया कि किसी योग्य विद्वान से ऐसी शोधपूर्ण पुस्तक जिसमें सब दृष्टियों से सप्रमाण मुंगेर जिलान्तर्गत क्षत्रियकंड को भगवान महावीर का जन्मस्थान सिद्ध करने में सक्षम हों लिखाई जावे और पाठ्य पुस्तकों में से भी इस मान्यता को निकलवाने केलिए सक्रिय हो। ____ इस अभाव को देखते हुए मैंने सन् ईस्वी १९८६ में स्वयं ऐसी शोधपुस्तक लिखने का निश्चय किया। अनेक परेशानियों, बाधाओं, संकटों को पार करते हुए दृढ़ निश्चय और संकल्पपूर्वक यह शोधपुस्तक लिखकर तैयार हो पाई है। इस शोधकार्य में अनेक विघ्न-बाधाएं आई। कई नगरों के ग्रंथागारों में जाकर इस कार्य को यथाशक्ति-मति और योग्यतानुसार यह शोधग्रंथ लिखने में मैं सफल हो पाया हूं। श्वेताम्बर जैनचतुर्विध संघ अपने सावित्व को समझे और इस के प्रकाशन प्रचार-प्रसार में सक्रिय सहयोग १. खेद है कि जैनों की उपेक्षा, प्रमाद, उदासीनता और लापरवाही के कारण अनेक तीर्थ विस्मृत हो गये, अनेकविच्छेद हो गये और आक्रमणकारियों की तोड़-फोड़, लटपाट से ध्वंस किये गये, अनेक धमाधों ने अपने कब्जे में करके अपनी मान्यता के रूप में परिवर्तित करलिये। २. विक्रम की १६वीं शती में ही बैन धर्मानुयायियों में से कुछ ऐसे संप्रदाय स्थापित करलिये गये, जो जिनप्रतिमाओं, जिनमंदिरों, जिनतीर्थों की मान्यता के कट्टर विरोधी हो गये और उनके प्रचार प्रसार से जैनमंदिरों और चैनतीयों,जैनस्मारकों की बहुत भति हुई।

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