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(२) उस काल-उस समय में जब ग्रीष्म (उनाले) का चौथा महीना और आठवां पक्ष याने आषाढ महीने का शुक्लपक्ष (सुद पक्ष) चल रहा था, उस आषाढ सुद छट्ट के दिन स्वर्ग में रहे हुए महाविजय पुष्पोत्तर प्रवर पुंडरिक नामक महाविमान में से च्यवकर श्रमण भगवान महावीर महाकुण्डगांव नगर में रहते कोडाल गोत्र के ऋषभदत्त माहण-ब्राह्मण की पत्नी जालंधर गोत्र की देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षी में गर्भरुप उत्पन्न हए। जिस विमानमेंसे भगवान का च्यवन हुआ उस विमान में बीस सागरोपम जितनी आयुष्य स्थिति थी। च्यवन के समय भगवान का आयुष्यकर्म क्षीण (नाश) हो गया था, भगवान का देवभव भी बिल्कुल क्षीण हो गया था, भगवान की देवविमान में रहने की स्थिति (समय) भी पूरी हो गयी थी। यह सब नाश होते ही तरन्त भगवान उस विमान से च्यव करके यहां देवानन्दा माहणी (ब्राह्मणी) की कुक्षी में गर्भरुप आये। जब भगवान देवानंदा की कुक्षि में गर्भरुप में आये तब यहां जंबुद्वीप में – भारतवर्ष कें- दक्षिणार्ध भरत में इस अवसर्पिणी (उत्तरताकाल) का सुषमा और सुषम-दुःषम नाम के आरो का समय बिल्कुल पूरा हो गया था। दुषम-सुषम नामक आरा भी लगभग पुरा हो गया था, अब सिर्फ
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