Book Title: Avashyakaniryuktidipika Part_3
Author(s): Manekyashekharsuri
Publisher: Vijaydansuri Jain Granthmala Surat

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Page 19
________________ * %%95%EASE योगकरणत्रयाभ्यां नेतन्या ग्राह्याः । श्रमणः प्राणातिपातादिविरतत्रिविधत्रिविधेनेत्यर्थः ॥ १५५७ ॥ देशमलगुणप्रत्याख्यानं श्रावकाणां स्यादिति तद्धर्ममोषत आह सावयधम्मस्स विहिं बुच्छामी धीरपुरिसपन्नत्तं । जं चरिऊण सुविहिया गिहिणो वि सुहाई पावंति ॥ १५५८ ॥ ___शृणोति यतिभ्यो धर्ममिति श्रावकः प्रपन्नसम्यक्त्वादिगुणः, धीरा अहद्गणधराः, यं धर्म चरित्वा सुविहिताः सुक्रिया | गृहिणोऽपि सुखानि (प्राप्नुवन्ति) ॥१५५८ ॥ साभिग्गहा य निरभिग्गहा य, ओहेण सावया दुविहा । ते पुण विभजमाणा, अट्टविहा इंति नायव्वा ॥ १५५९ ॥ तत्र सहाभिग्रहैलोत्तरगुणरूपेषु सर्वेष्वेकस्मिन् वा व्रतादौ नियमैवर्तन्त इति सामिग्रहाः, निरमिग्रहाः केवलसम्यग| दर्शनिनः कृष्णश्रेणिकादयः । ओघेन सामान्येन ते पुनर्द्विविधा अपि विमज्यमाना अष्टविधाः स्युः ॥ १५५९ ॥ यथा दुविहतिविहेण पढमो दुविहं दुविहेण बीयओ होइ। दुविहं एगविहेणं एगविहं चेव तिविहेणं ॥ १५६० ॥ Jain Education Internatio For Private & Personal Use Only I w w.jainelibrary.org

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